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रिश्ता

रिश्ता

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स्याही और कागज का होता

रिश्ता जैसे दिया,और बाती।

कोरा हो कागज तो क्या अर्थपूर्ण

होता स्याही,जब रंगीन बनाती।।

हथेली पर ना हो, किस्मत की

लकीरें तो हाथ, किस काम का ।

कागज से स्याही,का जब तक

ना हो मिलन,कागज किस काम का ।।

गगन को कागज,मान दिल की

स्याही से लिखूं, मन की बात ।

क्या पता कब ,सूखे स्याही और

ना लिख पाऊँ, कागज पर कोई बात ।।

जिंदगी भी तो होती,कोरा कागज़

कर्म की स्याही से, लिखे जाते फल।

जिनके कर्म होते जैसे पाप

पुण्य का मिलता,वैसा फल।।

स्याही से भीगी, लकीरें कभी

ख़ुशी दे जाती, कभी ग़म ।

सिलसिला रहता यह ,बदस्तूर जारी

होता स्याही व कागज का अनोखा संगम।।



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