राहें
राहें
राहें थी वो, धूमिल-सी!
धुँधली सी, कुछ संकरी-सी
कभी सूनी थी, कभी सहमी थी
कभी हलचल थी, अनजानी-सी
कुछ भूली थी, कुछ बिसरी थी
बुनते सपनों की पटरी थी।
राहें थी वो, दो राहें!
पलकों पर पलती आशाएँ
कभी सिमट गईं, कभी बिखर गईं
कभी मंज़िल से मिलकर लिपट गईं
कभी बनती थी, कभी मिटती थी
मन की दुविधाओं में बटती थीं।
राहें थी वो, राही की!
कभी सुलझी थी, कभी उलझन थी
कभी पथरीली-सी अड़चन थी
किसी मन के कोने की चाह थी,
किसी के अथक प्रयासों की गवाह थी।
कितनों के सपने बिखर गए,
कितनों के चहरे निखर गए,
कुछ लौट गए, कुछ भूल गए
कदमों की मंजि़ल पर फिसल गए।
डूबती कश्तियों की मंझधार थी,
मन के हारे राही की हार थी!
किसी विस्मृत मन की पहचान थी,
वो राहें थी, किसी परिचित से अनजान की।