ढलती उम्र
ढलती उम्र
अभी मैं भी सिख रही हूँ, यूँ ही थोड़ा झूठ बोलना,
कि अब मैं भी सिख रही हूँ थोड़ा थोड़ा चुप रहना।
कभी कभी तो खिड़की के बहार, यूँ ही बेवजह ताकना,
के सिख यही हूँ, उड़ती तितलियों से नज़र मिलाना।
कहाँ घंटो तक बाते करती रहती थी मैं सखियोंसे,
के अब शब्दों को तोलमोलके बोलना सिख रही हूँ।
कभी जो सीखा है बचपनमें मैंने अपने मातपिता से,
उन संस्कारोका मूल्य समझना अब मैं सिख रही हूँ।
और मेरे बच्चोको माँ बनकर, मैंने जो संस्कार दिए है,
उन संस्कारोंकी कीमत का क्या है, वो समझना सिख रही हूँ।
अकेलेपन के इस एहसास को कैसे है मुझे निभाना,
क्या याद रखूं, क्या है भुलाना, वो भी तो मैं सिख रही हूँ।
उम्र के इस पडाव में - धीरे धीरे आगे बढ़ना ,
कैसे रहना, क्या क्या सहना वो भी तो मैं सिख रही हूँ।
तुम क्या सिखाओगे अय दुनियावालो, के वक्त कि इस दुविधाने ,
उत्तुंग शिखरोंको धराशायी कैसे किया? वोही समझना सिख रही हूँ।
फक्र है मुझे अपने आप पर, के आज भी,
ढलती उम्र के इस पड़ाव में अब भी मैं कुछ सीख रही हूँ।