परिंदे
परिंदे
परिंदे सोच में है यहां महफिल ए जश्न है या जमी पर तबाही का शोर है
अब तो यहां हर एक इंसान नजर आता कुछ और है
यह आसमां हमें कुछ बदला बदला सा लगता है
हवाओं में भी अब तो अपनापन सा झलकता है
हमारी आवाज सब के कानों में जाने लगी है
मानो लगता है धरती फिर से मुस्कुराने लगी है
एक तरफ हम सुकून में और लोगों की बेचैनी बढ़ गई है
सुना है इंसानों से उनकी आजादी छिन गई है
जिन्होंने हमें सजावट का सामान समझ, पिंजरे में सजाए रखा
आज वो अपने ही घर में कैद नजर आते हैं
नासमझ थे यह लोग, हमारा दर्द कहां समझ पाते हैं
दिन रात अब तो बस यही ख्याल आता है
क्या इंसानों को कुदरत की बात समझ आएगी???
क्या होगा आगे इस दुनिया का ???
जब इन को फिर से आजादी मिल जाएगी।