परिन्दा
परिन्दा


वो कुछ बेपरवाह सा
हवा से मिलकर होता होगा
सुदूर नभ को निहारता गर्दन उठा
उफ़क पर हौसला रखता होगा।
घरौंदे छोड़कर ज़मीं को
चूम कोई वादा किया होगा
नज़र रखी होगी ज़रूर आस्मां
पर खोलने से पहले भी उड़ा होगा।
सकुशल लौटना कम सोच ही
नदियों की धार चोंच भरता होगा
आकाश की ऊंचाई से ज़्यादा
मुंडेर, उस घोंसले पर, मरता होगा।
परिंदो को हर उड़ान सबक
उसे हौसला ज़िंदगी का होगा
वो ही जीता है हर पल खुलकर
भीगते, जूझते मौसम बदलता होगा।