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Richa Chauhan

Abstract

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Richa Chauhan

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फितरत

फितरत

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पड़ोस के जलते मकाँ 

की आग अभी दूर है

अभी कहाँ खाक हुआ है सब

आग की गरमाहट से ज़रा 

हाथ सेंक ले


वे ठंडे पड़े चेहरे तो

हैं गैर के

वक्त है बाक़ी

दिल पसीज लेंगे

अभी तक राख नहीं घुली हैं

साँस में।


हमें अपनों की मौजूदगी 

दिलासा देती है

इंसानी फितरत-

सुकूँ ढूंढ लेती है। 


रुह सियाह हो गई 

उन्हें नोच खाने में 

मलाल क्या

क्या गिला 

नामुरादों के जाने में 


जीना या मरना 

तो अपनी किस्मत होती है।

इंसानी फितरत 

सुकूँ ढूँढ लेती है।


जुल्म अपनों पे हो 

तब देख लेंगे

अभी तो शाम गुलज़ार है

चोट गैरों को आई है 

जख्म उनको मिला है 


घुसपैठ दूसरे शहर में हुई

कांच उनके टूटे हैं। 

दरवाजे पर कुंडी लगा 

हमने अपनी रोटी सेंकी है। 

इंसानी फितरत-

सुकूँ ढूँढ लेती है। 


शोर है मचा बाहर 

न जाने क्या तमाशा है

वे चिल्ला रहे जैसे 

पहली दफ़ा उनको दबोचा है।

 

एहसास सुन्न हैं कब से 

कब से दिल नहीं धड़का 

मुद्दत हुई, मानवता 

कब्र में लेटी है

इंसानी फितरत

सुकूँ ढूँढ लेती है।


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