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Richa Chauhan

Abstract

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Richa Chauhan

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दीवारें

दीवारें

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शहर की दीवारें

फटी पड़ी हैं

झड़ते - उतरते प्लास्टर के

अंदर से झांकते पत्थरों से।

यह पत्थर शायद

इस शहर की लड़कियों की तरह

जिद्दी हैं।

ठेकेदार की मेहनत की

कद्र नहीं

उसकी घूरती आंखों तक की

शर्म नहीं

पुताई की अगली सुबह ही

अंगड़ाई लेते

बाहर धमक जाते हैं।


शहर की दीवारें

सजी पड़ी हैं

पानी की पीक से

दीवारें स्वार्थी हैं

बस शिकायत करती हैं

इस शहर की लड़कियों की तरह

मेहनतकश आदमी

तनाव भी कम ना करे ?

फिर वो पान थूके

या हाथ उठाए ।

दीवारों की नियति

रास्ते की रुकावट नहीं

छत का सहारा बनना है ।

और पान की पीक तो

हक है ,धब्बे नहीं

ये दीवार हो या चहरे।


शहर की दीवारें

भरी पड़ी हैं

इश्तिहारों से

नारों से

नेताओं के मुस्कुराते चेहरों से

आखिर शहर की पहचान

साफ दीवारों से नहीं

नेताओं के रोब से है

दीवारें खुशनसीब हैं

इस शहर की लड़कियों की तरह

उनकी खुशी में

चार चाँद लग जाते हैं

जब उनके होठों पर

किसी और की मुस्कुराहट

चिपकाए जाती है।


शहर की दीवारों से

जलती हैं

मंदिर - मस्जिद की दीवारें

वे पाक- साफ हैं

उन्हें कोई छूता नहीं।

त्यौहार का वक्त है

अब दीवारें भी पूजनीय है

इस शहर की लड़कियों की तरह

उन्हें देवी बना दिया गया है

फिर भी दुखी है

जाने दो

शिकायत करना

इन दीवारों की

फितरत बन गई है।



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