पहाड़ की बात - 1
पहाड़ की बात - 1
ये जो सन्नाटे हैं, ये अपनों ने ही बांटे हैं,
अपने पहाड़ से तोड़ सभी,
शहरों से जोड़े रिश्ते नाते हैं।
खिलखिलाते थे जो गांव पहले,
अब वो खामोश बैठे हैं,
खुले पहाड़ को छोड़ सभी,
शहरों के बंद कमरों में रहते हैं।
कोई पूछे उन बंद घरों से,
क्यों उनपे ये ताले लटके हैं।
क्या थी मजबूरी जो,
वो इस तरह से उजड़े पड़े हैं।
क्यों नहीं कोई उनको सँवारने आता हैं,
क्यों उनको अब अपना पहाड़ नहीं भाता हैं।
वो पहाड़ जो कभी खिलते थे, हरे भरे खेतों से,
क्यों आज वो बंजर होके,
शांत और पीले पड़े हैं।
पुकार रहा है पहाड़ अपनों को, फिर से एक बार।
बढ़ाये कदम अपने पहाड़ की तरफ,
और कम करे पलायन की बढ़ती रफ़्तार।