नज़रिया
नज़रिया
वह कहूं जो है यहां कभी नहीं कहा गया,
सबने ही सुना जिसे या कहूं वह दास्ताँ।
वह कहूं जो मैं कहूं कि जाम में घुले कहीं,
तालियां मिले मगर बात हो न काम की।
यह कहूँ की एक तरफ़ा इश्क़ है हसीं ये
या पूछ लूं कि जल रही क्यूँ बेटियां हैं देश में।
यह कहूं की इश्क जो है बहुत ही पाक है
या गिनाऊ इश्क़ में कितने हैं जो ख़ाक हैं।
प्यार करते हो अगर दुश्मनी से न डरो,
या कहूं कि देख लो कि प्यार सोच कर करो।
एक पंछी को कहूं कफ़स नहीं है आसमान,
या कफ़स में भेज कर कहूं कि खुश रहे वहाँ।
बोल दूँ उसे यहीं क
ी जा उधऱ पर फैला,
या कहूं के डर के जी बड़ा बहुत है आस्मां।
मैं इश्क़ की खुदा कहूँ या इश्क़ से खफा रहूँ,
मैं ख़्वाब तुझको दूँ कोई या जो भी सच है बोल दूँ।
मैं इब्तिदा करू कोई, या तो साथ में चलूं यूँ ही,
मैं क्या करूं मुझे बता, मैं क्या यहाँ करू नहीं।
वक़्त काफ़ी हो गया ऐसा सोचते हुए,
अब ज़हन भी कह उठा फैसला तो कीजिये।
तो हाँ यहीं है फैसला, तो हाँ यही है फैसला,
की जो दिखेगा अब यहां, आगे आके ये कलाम खुद करेगी वह बयान।
है आईना समाज का, सच कहेंगे अब यहां,
होश में रहोगे तो सुनना हमने क्या कहा।।