मुसाफिर
मुसाफिर
लहरों पे चलती है नौका ये जीवन की
किनारे पे बैठे मैं राह देखूँ सावन की !
बंद था पिंजरे मे जो अबतक
पूछे मन ये, कैद है कबतक
पंखों को अब आस जो लगी है गगन की !
फैला कर देख बाहें अपनी
जीतने की प्यास है कितनी
समझ ना तू इसे बात मनोरंजन की !
गुंज उठी है हर दिशा में
ना रुकना किसी भी दशा में
तूफान ही तो पहचान है पवन की !