'मर्द'
'मर्द'
जब जब तुमने उसके शरीर को नोचा है
उसकी हर आह पे हर सिसकी पे मेरा कलेजा रोया है
कभी माँ को , कभी बहन को, कभी बेटी को तो कभी किसी की प्रेमिका को
जब जब भी तुमने महज़ एक चीज समझकर पूरी जिंदगी उसका अनादर किया है,
तब तब मेरी माँ, मेरी बहन, मेरी बेटी, मेरी प्रेमिका का वो अनादर देख के,
इस बेटे का सिर भी हमेशा शर्म से झुका है..
हाँ हूँ मैं एक मर्द जिसके भी काफी रिश्ते बिखरे हैं,
हर हैवानियत पे मैंने भी तो आखिर मेरे किसी अपने को ही तो खोया है.
फिर भी क्यूँ हर बार मुझे यही सुनाया जाता है,
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो , और मर्द को कहां दर्द होता है
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो, और मर्द को कहा दर्द होता है।
पापा के चिल्लाने पर सहमी हुई मेरी माँ की वो हर एक सिसकी में भी तो उतनी ही महसूस कर पाता हूँ ,
माँ के चिल्लाने पर मेरी लाड़ो की गमगीन आखों से मेरा दिल भी तो गमगीन होता है ,
पत्नी के हर एक घाव से मेरा भी तो नाता गहरा होता है,,
और मेरी बेटी तो हमेशा ही मेरे कलेजे का टुकड़ा होती है..
फिर भी तुम यही कहते रहते हो, के तुम भी तो एक मर्द ही हो,
और मर्द को कहां दर्द होता है।
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो,और मर्द को कहां दर्द होता है।
बचपन से ही मुझे खुद को खुद से दूर रखना सिखाया जाता है,
मर्द हूँ तो अपनी मर्जी से खेलने , कूदने और कपड़े पहनने से लेके रोने तक की आज़ादी को छीन लिया जाता है,
तुम लड़के हो, तुम सख्त हो, रोना तुमहरा काम नहीं,
पर क्यों ये भूल जाते हैं के उपर वाले ने दिल और आँखे तो हमारे जिस्म में भी दी हुई है,
और जब दिल दुखता है तो आँखे रोती हैं।
फिर भी क्यूँ बस मेरे मर्द होने से ही मेरी आखों से उसके रोने तक का अधिकार भी छीन लिया जाताहै!!
आखिर मुझसे भी कभी कहां कोई पूछता है,
की घर संभालोंगे या सपने!
बस बचपन से ही ‘तुम घर के मर्द हो’ ये कहके मेरे कंधे पे पैसे लाने की जिम्मेदारियों को थोप दिया जाता है।
फिर भी क्यूँ हर बार मुझे यही सुनाया जाता है,
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो , और मर्द को कहां दर्द होताहै
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो, और मर्द को कहां दर्द होता है।
घर के कामों का औरत और मर्दों में बंटवारा तो पुरखो ने ही सिखाया होता है ,
फिर भी एक औरत को बाहर जाके काम करने पर वाह वाही देने वाला ये समाज,
आखिर क्यूँ मेरे घर में रहके अपने ही घर और अपने ही बच्चों को संभालने के फैसले पर मुझे नाकारा बना देता है!!...
घर में रहने भर से ही, मेरी मर्दानगी को मुझसे छीन लिया जाता है,
फिर भी क्यूँ हर बार मुझे यही सुनाया जाताहै,
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो , और मर्द को कहां दर्द होताहै !
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो, और मर्द को कहां दर्द होता है।
अगर मेरी कमाई देखके मुझसे शादी करने या ना करने का उसका फैसला सही है,
तो मैं भी अगर उसका रूप देख लेता हूँ तो उसमे क्या बुरा है!!!
मैं भी तो आखिर किसी का जिंदगी भर का साथ ही तो चाहता हूँ,
फिर भी मेरी हर एक जुस्तजू को हमेशा महज़ जिस्म पाने की कैफियतों से ही क्यूँ जोड़ दिया जाता है!!!
आखिर मैं भी तो जानता हूँ के प्यार का दर्द क्या होता है,
क्यूं कि लैला के बिना उसके मजनू का भी कहां गुजारा होता है!!!
और इसीलिए तो दर दर की ठोकरे खाता हुआ मजनू, मरते दम तक,
सिर्फ और सिर्फ उसकी लैला के बारे में ही तो सोचता है...
फिर भी क्यूँ हर बार मुझे यही सुनाया जाता है,
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो , और मर्द को कहां दर्द होता है
तुम भी तो आखिर एक मर्द ही हो, और मर्द को कहां दर्द होता है।
अगर माँ की सुनूं तो उसका लाडला, अगर पत्नी की सुनो तो उसका गुलाम,
क्यूँ हमेशा मुझे ऐसे ही दो हिस्सों में बटना होता है,
जब कि अच्छे से जानते हो, के दोनों हिस्से में हमेशा मेरा ही वजूद खोता है,
मानता हूँ, मैं मर्द हूँ, तुमसे जुदा तुमसे फर्ज हूँ,
ना सोच मिलती है हमारी, ना सपने,
फिर भी चाहतें मेरी भी तुम्हारे जैसी ही है,
बस थोडा़ सा समझ ले मुझे कोई, मैं भी तो सिर्फ इतना ही चाहता हूँ।
मैं भी तो सिर्फ तुमसे इतना ही सुनना चाहता हूँ कि
'हां....
मैं जानती हूँ कि तुम एक मर्द हो,
और तुम्हें भी तो दर्द बराबर का होता है।
हाँ , मैं भी तो आखिर एक मर्द ही हूँ,
पर मर्द को भी बोहोत दर्द होता है।