मंच के उस पार
मंच के उस पार
परदे के पीछे की जिन्दगी
मंच के सोपान पार करती रही
हर एक उपाख्यान पर
वेदनीय हस्ताक्षर,
सफलता की संगणना करते रहे।
मानव सौंदर्य को जीता रहा मंच
दृश्य पट के पार लाचारी दचा पीती रही
टूटी खाट पर बूढ़ा दम तोड़ता बाप
गृहस्थी के बोझ से दबा
लकड़ी व कण्डों की याचना पर बिछ गया
राशन के ताने बाने सुबह से शाम तक
बुनने में घुटती माँ, असहाय
उजड़े हुए घोसले की गौरैया की भाँति-
परित्रस्त चूजों को परों में छुपाये
मंच के उस पार शीत ताप वर्षा में भी
कथानक पर कथानक जीती रही
दुखांत पटकथा को आत्मिक सुखों से
अभिव्यंजित करता रहा दर्शकों का हर्ष
तालियों के बीच पार्थिव अपार्थिव में
बंटता रहा अपना मंचीय वर्ष।