मकर संक्रांति - संदेश क्रांति
मकर संक्रांति - संदेश क्रांति
इस अजर-अमर वसुंधरा पर
बस मानव तो एक मेहमान है
मौन रहे तो बेबसता
हुए अमौलिक तो खतरा है।
व्यावहारिक अनबन ही
सच में मानसिक क्रांति है
ग्रह-नक्षत्रों की उलझन
खगोलीय कथित संक्रांति है।
तिथि-मुहूर्त में
परिवर्तन तब-तब होता है
जब कालचक्र में तिल-तिल
विचलन होता है।
सूरज जब बढ़ता उत्तरायण
चैतन्य रूप धरा का होता नारायण
सत्य यही स्थिर नहीं यहाँ
सृष्टि के कोई साधन।
ऋतुएं बदलने की
करती हैं फिर तैयारी
गुड़ की मिठास के साथ
आती है मकर संक्रांति।
धरा संतति चलो इसकी कुछ
हम ऐसे करेंगे खातिरदारी
कि सब हाथों में
पतंगे दे देंगे रंग-बिरंगी।
और डोर जिम्मेदारी की थमा दें
बस अहिंसा और सद्भावों को
फिर अंतरिक्ष में सैर करायें
सब अपने-अपने अरमानों की।
इस जगत जन-जीवन में
पंक्षी-वन-पवन-गगन
सबके अपने होंगे, जब !
पहल हो निःस्वार्थ सेवार्थ क्रांति की।