महंगाई के दोहे
महंगाई के दोहे
महंगाई डायन डसे, निर्धन को दिन-रात
धनवानों की प्रियतमा, पल-पल करती घात //
महंगाई के राग से, बिगड़ गए सुरताल
सिर पर चढ़कर नाचती, झड़ते जाएँ बाल //
महंगी रोटी-दाल है, मुखिया तुझे सलाम
पूछे कौन ग़रीब को, इज्ज़त भी नीलाम //
आटा गीला हो गया, क्या खाओगे लाल
बहुत तेज इस दौर में, महंगाई की चाल //
आटा-चावल-दाल क्या, सत्तू तक है दूर
महंगाई के खेल में, हिम्मत चकनाचूर //
बच्चे बिलखें भूख से, पिता रहा है काँप
डसने को आतुर खड़ा, महंगाई का साँप //
महंगाई प्रतिपल बढे, कैसे हों हम तृप्त
कलयुग का अहसास है, भूख-प्यास में लिप्त //
महंगाई के प्रेत ने, किया लाल को मौन
मात-पिता हैरान हैं, उनको पूछे कौन //
गपशप में होने लगी, महंगाई की बात
वेतन ज्यों का त्यों रहा, दाम बढे दिन-रात //
महंगाई के दौर में, कटुता का अहसास
बदल दिया है भूख ने, वर्तमान इतिहास //
सदियों से निर्धन यहाँ, होते रहे हलाल
धनवानों के हाथ में, इज़्ज़त रोटी-दाल //