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Kumari Subham

Abstract

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Kumari Subham

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महामारी

महामारी

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जो नज़रों से परे है,

जिसका अस्तित्व कभी है,

कभी नहीं है,

उसने कर दिया बेहाल है,

ये महामारी के रूप में

आया महाकाल है,

सुनो मुख से मेरे मानवता का कैसा हाल है:

कहीं त्योहारों से मौज गायब है,

कहीं मैदानों से बच्चो की फौज गायब है,

कहीं विद्यालय से जो हर रोज़ गायब है,

कहीं विज्ञान से जैसे खोज गायब है।।

कहीं मिठाइयां तारीफों के इंतज़ार में है,

कहीं वापसी नज़रो के इंकार में है,

कहीं प्यार यादों की झंकार में है,

कहीं रोष घर बैठे टकरार में है।।

कहीं दुकानों पर ताले है,

कहीं मंदिर से लुप्त होते उज्जयाले है,

कहीं सख्त आतंकियों के भाले है,

कहीं तैयार वीरो के वीर निराले है।।

कहीं बागों में फूल सुख रहे है,

कहीं खेतों में धूल रुक रहे है,

कहीं पेड़ो पर फल पक रहे है,

कहीं ना कोई जिन्हें लपक रहे है।।

कहीं भंडारो में सड़ते अनाज है,

कहीं सर चढ़ते ब्याज है,

कहीं कोई ईश्वर से नाराज़ है,

कहीं कोई घर बैठे पढ़ रहा जुम्मे की नमाज़ है।।

कहीं अब यातायात नहीं है,

कहीं अपनो का साथ नहीं है,

कहीं हर डाल डाल पर पात नहीं है,

कहीं दिन और रात नहीं है।।

कहीं सड़को पर सन्नाटे हैं,

कहीं बाजारों में घाटे हैं,

कहीं कोई चावल आटा बाटे है,

कहीं कोइ भुखे राते काटे है।।

कहीं अम्मा दूर खड़ी ताके है,

कहीं गुड़ियाँ रानी पर्दो से झाके है,

कहीं कोई मासूम पापा को रोके है,

कहीं जो सेना में अपना तन मन झोंके है।।

कहीं कुछ लोग अकेले है,

कहीं छोटे से घर में मानो मेले है,

कहीं नई नवेली मन ही मन रोले है,

कहीं मायके बरातों को झेले है।।

कहीं मााँ-बाप बच्चों को तरसते हैं ,

कहीं जो बन्द कमरो में सिसकते हैं ,

कहीं परिवारों की शाखाएँ छठते हैं ,

कहीं लाशें लावारिस भटकते हैं ।।

कहीं चौपालें सुनी पड़ीं है,

कहीं सन्नाटे की खूंटी गड़ी है,

कहीं गाय प्यासी खड़ी है,

कहीं भूखे पसुओं की लड़ी है।।

कहीं बादल फुट रहे हैं ,

कहीं ओले आसमान से छूट रहे हैं ,

कहीं कुछ हाथ अकेले धान कूट रहे हैं ,

कहीं कुछ निर्बल कन्धो से बोझे छूट रहे हैं ।।

कहीं झुग्गियों में लोग लाचार हैं ,

कहीं उनका हो रहा संघार है,

कहीं बिकते पत्रकार हैं ,

कहीं चिता पर सिकते समाचार है।।

कहीं राजनीति नतमस्तक है,

कहीं घायल पड़े समर्थक हैं,

कहीं शब्दो के बदलते अर्थ है,

कहीं अर्थ हो रहे व्यर्थ हैं ।।

कहीं कुछ जीने की उम्मीद दिन-रात करते हैं,

कहीं कुछ अकेलेपन में आत्मघात करते हैं,

कहीं रोज़ कमाने वाले बिन चाहे हड़ताल करते हैं,,

कहीं जनसेवा में जुटे लोग इंसानो की पड़ताल करते हैं।।

कहीं घरो के दीपक बुझ रहे हैं,

कहीं मानव मानवता से लड़े है,

कहीं कोई आराम करे है

कहीं कोई मदहोश पड़े है।।

कहीं दवाइयां घट रही है,

कहीं आंत हड्डियों से लिपट रही है,

कहीं सड़कें गलियों में सिमट रही है,

ना जाने कहां से आई ये विकट घड़ी है।।

बताना मुश्किल है कैसे,

बताना मुश्किल है कैसे,

अफवाहों के बीच ज़िन्दगी कट रही है।।


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