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Kavi Vijay Kumar Vidrohi

Inspirational

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Kavi Vijay Kumar Vidrohi

Inspirational

मैंने फूल नहीं साधे...

मैंने फूल नहीं साधे...

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कपटकाल का श्यामल युग है मैं भावों का त्रेता हूँ

मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ

संविधान में आग लगा दो यहाँ निर्भया रोती है

लुप्त दामिनी लोकतंत्र के दूषित पगतल धोती है

कहाँ मर गए आतंकी जो जेहादी कहलाते हैं

निर्दोषों का ख़ून बहाकर चिरबाग़ी बन जाते हैं

आज बताओ कहाँ सुप्त हो क्या आडम्बर धारे हो

मुझे बता दो मौन धरे अब किस मज़हब के प्यारे हो

आज कहो क्यों अपना छप्पन इंची सीना छिपा रहे

झाड़ू के तिनकों सी तुम नंगी कायरता दिखा रहे

लुटी अचेतन आँखों सी पथराई नैया खेता हूँ

मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ...१

 

मद्धम शीतल मलय पवन अब बारूदों की दासी है

अधिकारों की लालायित आशाएं खूँ की प्यासी हैं

अंतर्मन में जनमानस की पीड़ा का अम्बार भरा

इसी हृदय में मेरे भूखे बचपन के हित प्यार भरा

गली के निर्बल ढाँचे की चेहरे की झुर्री देख रहा

बरसों से आँगन की टूटी खटिया खुर्री देख रहा

मुझे बताओ कैसे गुलशन बाग सींचने लग जाऊँ

मुझे कहो कैसे बहनों के चीर खींचने लग जाऊँ

अनललेख के तप्तभाव को मैं अपना स्वर देता हूँ

मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ...२

 

नेत्रलहू की स्याही को तलवार बनाकर लिखता हूँ

मैं शब्दों का शीतसुमन अंगार बनाकर लिखता हूँ

चिपके पेटों को रखकर रोटी की बीन बजाता हूँ

दर्पण बनकर मैं समाज को सत्यछबि दिखलाता हूँ

मेरे अक्षर अक्षर में तुम एक प्रलय टंकार सुनो

शब्दनाद पोषित कर देखो अमिट अनल हुंकार सुनो

पीड़ाज्वार लखो तुम लुटती बाला की चीखें सुन लो

बूढ़े बेबस आँसू से तुम अपना सकल हश्र बुन लो

मैं समाज का एकमुखी घट जो लेता वो देता हूँ

मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ... ३

 

नेताई जब नेताओं की नैतिकता हर लेती है

हर मर्यादा नगरवधू की चौखट पर धर देती है

पंछी जब कलरव क्रंदन में फ़र्क नहीं कर पाते हैं

शेर गीदड़ों की जंगल में सड़ती जूठन खाते हैं

झेलम की शीतल लहरें जब आँसू से नमकीन लगी

वीरों के शव देख देख कर भारत माँ ग़मगीन लगी

संसद की मीठी बातें जब ख़ूनी लगने लगती हैं

अरबों आबादी में गलियाँ सूनी लगने लगती हैं

मैं कविता में तब जन, कण की पीड़ा को भर देता हूँ

मैंने फूल नहीं साधे मैं शूलों का विक्रेता हूँ... ४


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