" माँ का बचपन"
" माँ का बचपन"
बिन बेटी सूना घर आंगन
जब बेटी भ्रूण में मारोगे, कैसे रिश्तों का विस्तार होगा?
जो सृजन हार है सृष्टि की जब उसका ही संहार होगा।
बेटी बाबुल की आंगन की कोयलिया सी होती है।
उछल कूद करती है इत उत छैल छबीली होती है।
गर बेटी ना होगी फिर तो पायल की रुनझुन का क्या?
तीज़ और त्योहारों में फिर गीतों के गुनगुन का क्या?
बेटी के पग घूॅंघर के बिन आंगन कैसे शोभेगा?
निमिया के बीरवा पर कैसे भौरा कोई गूँजेगा?
चह चह चहकेगी फिर कैसे गौरैया सी बेटी बाग में?
कन्यादान का फल कैसे मिल सके पिता के भाग में?
बेटी से सभ्यता है पोषित बेटी से निर्मित संस्कार।
बेटी बिन हर रौनक फीका बेटी से सुरभित संसार।
बेटी ही तो दो दो कुल की आन मान और शान है होती।
बेटी ही होती है माॅं के दुख सुख घड़ी की साझेदार।
बिन बेटी के सूना आंगन सूना लागे निमिया डार।
नहीं लाडली जिसके घर में उजड़ा लागे आंगन द्वार।
कोख ना माॅं का होत सार्थक एक बेटी ना जन्मे जब।
कल की बेटी आज भविष्य है बेटी ही है सृजन हार।