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Harisingh Meena

Abstract

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Harisingh Meena

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कविता जागती रही

कविता जागती रही

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कवि तो सो गया लेकिन कविता जागती रही

मेरे सपनों में आ-आकर,मेरी नींदें चुराती रही

कवि रस पिलाकर के, मधुरस रही बांटती रही

कवि तो..


बड़े महलों में सन्नाटा, कोई अपना न मिल पाया

डींगे हांकते अकड़ु, सुख की चाह तड़पते प्यासे

मेरा मैं तेरा तू,अपनी चौखट अपने दरवाजे

धन का ढेर था लेकिन, प्रीत को ढूंढती रही

कवि तो...


दीनबंधु का देवालय,थी दीन की कुटिया

कुटुंब का आसरा बस वो, एक सांवरिया

चिथड़ो में सिसकियां, मन मंदिर

बहती प्रेम की गंगा, कटुता ढूंढती रही

कवि तो..


सांसों को बिलखता जीवन,धुएं में धुंधली नगरी

देखी प्रीत भी नकली देखी रीत भी नकली

लेते तोल के तराजू में,बेचते नकली नीर और वायु भी

वहां व्यापार का सामान,मानवता ढूंढती रही

कवि तो..


नगरों की नजर न लगना, वहां भारत आज भी जिंदा

लबों पे असली है लाली, असली है मुस्कान

गांव में कलियां भी खिलती है, खुशबू महकती है

वहां है राग रंग और खुशियां, बहे घी दूध की नदियां

वहां बोली में मिश्री है, नफरतें ढूंढती रही

कवि तो...


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