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Parul Mehta

Abstract Romance

3  

Parul Mehta

Abstract Romance

कुछ अनकही सी !!

कुछ अनकही सी !!

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ये पिघला हुआ सा

आसमां आज क्यों है ?

 

तंग गलियों में

तेरी हल्की आहट क्यों है?

 

ये थोड़ी धुंध में

तेरी परछाई क्यों है?

 

इस सर्द मौसम में

ये तेरी रजाई क्यों है?

 

आज रात ये चाँद

मेरे आँगन में उतरा क्यों है?

 

ये पटरियों की तरह

तेरे मेरे रास्ते क्यों है?

 

आज चंदन सा

सब महका क्यों है?

 

मेरी आंखों में आज

तेरे लिए कुछ लिखा क्यों है?

 

बिना पहचान के

ये सिंदूरी एहसास क्यों है?

 

साथ चलते-चलते

तेरे मेरे दरमियान ये फासले क्यों है?

 

धीमी फुहार में

कुछ लम्हे साथ बिताने का मन क्यों है?

 

हलकी गिरती बर्फ में

तुझ में सिमट जाने का मन क्यों है?

 

तेरी ओर बढ़ता और नजदीक होता

मुझ में ये झुकाव क्यों है?

 

पतझड़ में चिनार के पत्तों की तरह

मेरा कुछ तुझमें बिखरता क्यों है?

 

गुनगुने-खट्टे-मीठे-नमकीन होते सफर में

काले मोतियों की चाह क्यों है?

 

नरम गलीचों में ओस की तरह

बिखरा मेरा ये प्यार क्यों है?

 

सब कुछ होते हुए भी

ये तेरी आस क्यों है?


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