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kalpana gola

Abstract

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kalpana gola

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कठपुतली बन जाता इंसान

कठपुतली बन जाता इंसान

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बंद दिमागों की खिड़की पर है वक़्त के फेर का पहरा

शब्द बदल दे भाव बदल दे तोड़ दे प्रेम ये गहरा


सम्मोहित है सबकी आँखें कुछ होता कुछ दिखता

रंग बदलकर झूठ बिक रहा, सच कैसे अब टिकता


घर घर के अंदर पसरा है जंग का एक मैदान

ना जाने कितने हिस्सों में टूटा हर इंसान


टूटा हर इंसान , तोड़ने वाले उसके अपने

मैं और तुम तक बिखर चुके है "हम" देखता था जो सपने


कोई झाड़ा कोई धूनी कुछ भी काम न आवे

बुरा वक़्त यूँ बुद्धि फेरे कोई अपना फिर न सुहावे


संग होंगे तो न टूटेंगे नियति है ये जाने

इसी वास्ते दूर करन के पैदा करे बहाने


मनोरंजन को अपने बुनता है किस्से भगवान

नियति के हाथों कठपुतली बन जाता इंसान


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