कर्म की निश्चयता
कर्म की निश्चयता
पाप-पुण्य और अच्छा बुरा, मान्यता होती सारी
कर्म हमारे सब निर्धारित करते
होती कर्म की महिमा भारी।।
साक-मांस, शुद्ध-अशुद्ध सब, भूख पर हो आधारित
पेट की खातिर सब कर्म है करते
ये प्रकृति की बात निराली।।
स्वर्ग-नर्क, पाताल यही पर, सुख-दुःख भी होते जानी
वाणी, काया-माया पहचान कराती
ये जाने दुनियाँ सारी।।
निस्वार्थ न होता कोई रिश्ता, दुनियाँ कच्चे बंधनों में बंधी है सारी
इच्छा-आवश्यकता ही हमें मिलाती
निर्धारित, वक्त-समय सब नियति करें हमारी।।
सुर-असुर एक भ्रम है प्यारा, कथाएं देव-दानव की काल्पनिक लगती सारी
कर्म ही ईश्वर, कर्म ही पूजा
होती निश्छल-निष्पक्ष कर्मो की नियति सारी।।