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Vishal Kumar

Abstract

5.0  

Vishal Kumar

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कोख

कोख

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कहा सुध बुध थी माँ की कोख में जिंदा या मुर्दा था

सभी हिस्से थे पूरे जिस्म के या कोई अधूरा था

एक नाड़ी थी जिससे खाना मिलता सांस आती थी

कभी हलचल मेरी कम हो तो माँ की जान जाती थी।


माँ सब जानती थी मुझे किस किस से खतरा था

पसंद की सारी चीज़ें छोड़ी ठंडा पानी छोड़ा था

समय के साथ मेरा बोझ जब ज्यादा हुआ होगा

सीढ़ी चढ़ना, चलना, फिरना भी मुश्किल हुआ होगा।


कहानी तब की है जब दिन भी मेरे रात जैसे थे

तुम्हारी आँखों से हम देखते होठों से हँसते थे

तुम्हारी फूकनी का कुछ धुआँ हम तक भी आता था

वो तुमको भी रुलाता था वो मुझको भी रुलाता था।


बाहरी आफ़तें उस वक़्त मुझको छू न सकती थी

बदलते मौसमों की मार न मुझ तक पहुँचती थी

मेरे हिस्से की सारी चोटे तुमने खुद पे ले ली थी

मेरी पैदाइश के दिन माँ तुम अपनी जां पे खेली थी।


कोख माँ की थी मुट्ठी खुदा की जन्नत से अच्छी थी

जब तलक माँ में रहते थे हमारी रुह सच्ची थी

माँस के टुकड़े में जां डाल दे ऐसा करिश्मा है

करिश्मा भी करिश्मा है क्योंकि उसमें भी एक माँ है।


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