कल उठ के चार कंधे ......
कल उठ के चार कंधे ......
जिंदगी खुद की है यार
कल उठ के चार कंधे और शोला लकड़ियां ,
बारह दिनों का रोना।
ग़ैर क्या सोचेंगे सोच कर,
क्यों खुद की खुशियों को खोना।
लाखों नहीं सैकड़ों से भी ज्यादा,
यहां दफन हुए है।
बड़ा डिजिटल युग आया है,
दो दिन बाद सब कुछ भूल जाना है।
यहां तो सभी का अलग रुतबा है।
धन के लोभ में हर कोई फंसा है।
आपका नाम है, तो सभी को आपसे काम है।
वरना दूर से सलाम है।
चार पल की तो जिंदगी है, यार
कर ले खुद के परिंदे की
कल उठ के चार कंधे और शोला लकड़ियां,
बार दिनों का रोना।
