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Sudhir Srivastava

Abstract

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Sudhir Srivastava

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किवाड़

किवाड़

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आधुनिकता के दौर में

हम आगे ही तो जा रहे हैं,

अब किवाड़ हैं कहाँ

अब तो दरवाजे हो गये हैं।

पुराने समय में

घर भले ही मिट्टी के रहे हों

पर उनकी शान

उनके किवाड़ हुआ करते थे,

शर्मोहया की दीवार हुआ करते थे।


किवाड़ों की भी

अपनी शान हुआ करती थी,

किवाड़ अमीर गरीब की

पहचान हुआ करती थी,

किवाड़ों का भी अपना वजूद था

मर्यादाओं का मजबूत स्तंभ था।


अब किवाड़ों का

अस्तित्व भी खो गया है,

किवाड़ों का स्थान

दरवाजों नें ले लिया है।

शायद ये भी मजबूरी ही है,

अब घर होते ही कहां

जहाँ किवाड़ सम्मान पा सकें,

अब तो सिर्फ मकान बनते हैं

जहाँ सिर्फ़ दरवाजे ही लग सकते हैं।


किवाड़ जो बचे पड़े भी हैं

अब वो भी उपेक्षित हैं,

या फिर अपना अस्तित्व

मिटने की प्रतीक्षा में हैं,

अपना वजूद मिटना है

किवाड़ जानते हैं,

इंसानी फितरत को ये किवाड़

सदियों से जानते पहचानते हैं।


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