कही खो न दूँ
कही खो न दूँ
बात है उन ख़्यालों की
जिसमे देखी बिछड़ने की सिसकियाँ,
देखती रह गयी उसकी बेबसियाँ,
लड़ती रही सबसे,बस वजह थी बच्चों की खुशियाँ।
तो बताओ कैसे उसे जाने दूँ ,डरती हूँ कही खो न दूँ।
आँखों के सामने टूट रहा था घर,
अनजान, लाचार बने खड़े थे सब मगर,
बिखरे ईंटों को समेटकर,टूटे रिश्तो को जोड़ना था सिर्फ उसका फिकर।
तो बताओ कैसे उसे जाने दूँ ,डरती हूँ कही खो न दूँ।
कूदरत ने कुछ ऎसा खोफ़ दिखाया,
सारी अवाम मे अपना केहर बरसाया,
लेकिन उसने हमें गोदी मे उठाकर,खुद को मिलो चलाया।
तो बताओ कैसे उसे जाने दूँ , डरती हूँ कही खो न दूँ।
न कोई तपती धूप,न कोई तूफानी बरसात, सबको हराया
मजबूरी कहीं छू न ले हमें इसलिए,सबसे छुपाया
लड़ते लड़ते थक चुकी थी व, फिर भी अपना मुँह का निवाला हमें खिलाया।
तो बताओ कैसे उसे जाने दूँ , डरती हूँ कही खो न दूँ।
बस यहीं इल्तिजा है खुदा से
अपना हाथ उस पर बनाए रखना,
उसकी उमर मुझसे बढ़ाए रखना,
क्योंकि डरती हूँ अगर छीन लिया उसे, तुझ पे किया यकीन कहीं तोड़ न दूँ।
तो बताओ कैसे उसे जाने दूँ , डरती हूँ कही खो न दूँ।