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Arun Singh

Abstract

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Arun Singh

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कागज़

कागज़

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ये कागज़ की बस्ती है,

कागज़ के ही लोग यहाँ

कागज़ यहाँ ख़्वाब हैं सबक

कागज़ ही है आसमाँ,

दिन हैं कागज़,

रातें कागज़तुम भी, मैं भी

सब ही कागज़

कागज़ ही हैं मौसम यहाँ


कागज़ की बारिश में

कागज़ की नाव चलती है,

कागज़ के फूलों पर कागज़ की

तितली उड़ती है

मैं और तुम


मिलते हैं उन फूलों के बागीचे में,

कागज़ सरीखी हमारी

कहानी चलती है

फिर सर्दी आती है

कागज़ की हम सख्त

कागज़ से तड़कते हैं,


कागज़ की ठिठुरन में,

कागज़ के शोले दहकते हैं,

कागज़ के पतझड़ में

हम कागज की पत्ती की तरह गिरते हैं,

कागज की मिट्टी में मिलकर

फिर कागज ही बनते हैं।


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