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monika sharma

Abstract

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monika sharma

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हयात का सफ़र

हयात का सफ़र

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हयात की शुरुआत तो आसान थी

क्योंकि बचपन बड़ा मासूम था,

जहाँ कागज की कश्ती जहाज थी

और अत्फ़ से बना आदिल आशियाना था।


कलेवा कर चल पड़ते थे

उस विद्यालय की ओर

अकेले नहीं अपनी टोली के संग

मचा दिया करते थे अक्सर हडदुंग चहु ओर।


बचपन मस्ती में गुजर गया

बड़ों के अश्फ़ाके पर

प्रश्न जरुर आया होगा-

' क्या यही था सफर ?'


जिंदगी का पैगाम आया

' अब हो जाओ जिन्ह़ार !

नसीब में सबके नहीं हूँ मैं,

जरा कर लेना तसव्वुर।'


त्यागने पडते है आरजू और छंद

बनने के लिए अर्जमंद,

आया जो जिंदगी का प्रस्ताव

कर गया शामिल अपनी खिदमत में।


सफर की शुरुआत तो तब हुई

जब मुलाकात हुई मुसाफ़िरों से

जिनकी मंजिल तो एक थी

पर राहों में अंतर था।


जिंदगी तो थी

पर आसरा नहीं था,

एहतियाज तो थी

पर ऐहतमाम नहीं था।


कान भी स्वयं की

असकाम़ सुनते रहे

इताब तो खूब आता

परन्तु फिर भी

एहसान समझ कर झेलते रहें


लोग शराब के खुमार में धुंध थे

और यहाँ अब्सार,

आब-ए - चश्म छलका रहे थे।


खुद की मेहनत पर

कभी गुमान नहीं किया

क्योंकि खुदका अश्फ़ाक

मैं स्वयं ही था।


एक दिन कहा जिंदगी ने मुझसे-

क्यों तू मुझसे शिकायत नहीं करता ?

क्यों तू छोटी उपलब्धियों में

खुर्रम होता ?

क्यों तू नामुमकिन को है चाहता,

जब तेरा कोई नाम ही नहीं होता?'


मैंने कहा-

' क्या फरियाद करूँ मैं उससे

जो हर किसी के नसीब में नहीं,

क्यों न होऊ प्रसन्न में उनमें

जो होता नहीं मुकम्मल हर किसी को।


अर्थ वही है

समझ नहीं है

'नामुमकिन' नहीं 'नाम'

' मुमकिन ' होता है,

निर्भर करता है

कौन कैसे समझता है।


क्या फरिय़ाद करूँ मैं तुझसे

जिसके पास भीड़ कम नहीं

शिकायत करने वालों की

जो तुझसे यह कहते हैं

थक गए हैं तेरी खिदमत से

जो आतिश के अंगारों पर चलाती है,

आराम नहीं है, काम बहुत है

नींद मुकम्मल नहीं हो पाती। '


ए जिंदगी तू उनको

तख्त पर नहीं कब्र में

मुकम्मल नींद सुला देती।


तुने दिया वो कम नहीं

तो फरिय़ाद कैसे करूँ,

सफ़र मुकम्मल हो जाए

यही आरजू है मेरी।


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