हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी स
हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी स
गंगा यमुना कृष्णा और काबेरी सी ।
हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।
मथुरा, काशी, उज्जैनी, कैलाश तक ।
गूँज रही है महिमा उस आकाश तक ।।
पावन इतनी तृप्त हृदय को कर देती है ।
नव चेतना अंतर्मन में भर देती है ।
ढोल मंजीरे शंख लिए ज्यों,किसी प्रभात फेरी सी ।
हाँ ! हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।।
हाय हेलो नहीं जानता मैं तो बस प्रणाम करूं ।
शीश झुकाऊं गुरु चरणों मे सबको राम राम करूं ।।
हिंदी बोलूं हिंदी गाऊं हिंदी को ही ध्याऊँ मैं ।
प्रभु दो आशीष मुझे बस हिंदी को अपनाउं मैं ।।
मोहन की ज्यों बजे बांसुरी, राधा को लगे चितेरी सी ।
हाँ ! हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।।
गंगा यमुना कृष्णा और काबेरी सी ।
हाँ ! हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।
