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Pradeep Awasthi

Abstract

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Pradeep Awasthi

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हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी स

हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी स

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गंगा यमुना कृष्णा और काबेरी सी ।

हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।


मथुरा, काशी, उज्जैनी, कैलाश तक । 

गूँज रही है महिमा उस आकाश तक ।।


पावन इतनी तृप्त हृदय को कर देती है ।

नव चेतना अंतर्मन में भर देती है ।


ढोल मंजीरे शंख लिए ज्यों,किसी प्रभात फेरी सी ।

हाँ ! हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।।


हाय हेलो नहीं जानता मैं तो बस प्रणाम करूं ।

शीश झुकाऊं गुरु चरणों मे सबको राम राम करूं ।।


हिंदी बोलूं हिंदी गाऊं हिंदी को ही ध्याऊँ मैं ।

प्रभु दो आशीष मुझे बस हिंदी को अपनाउं मैं ।।


मोहन की ज्यों बजे बांसुरी, राधा को लगे चितेरी सी ।

हाँ ! हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।।


गंगा यमुना कृष्णा और काबेरी सी ।

हाँ ! हिंदी मुझको लगती है कुछ मेरी सी ।

         


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