हाँँ मैं दिन भर कुछ नहींं करती
हाँँ मैं दिन भर कुछ नहींं करती
कल फिर
धूल से नहायेंगी ये दीवारें,
गंदा होगा फर्श, जानती हूँ।
पर इन्हें घंटों लगा आज झाड़ती हूँ।
कल फिर जूठे होंगे बर्तन
कड़ाई पर जमेगी कालिख
पर आज घिस-घिस कर बर्तन माँजती हूँ।
कल फिर
कपड़ों पर चढेगी मैल की मोटी परत,
फिर धोऊँगी उनको मल मल कर
पर आज उन्हें सूखाने धूप में डालती हूँ।
अथक मेहनत के बाद बने
पकवान अंत में गंध और उबकाई का ही रुप होंगे
पर इन्हें पकाने खुद को रसोई में दिन भर हाँकती हूँ।
पति ऑफिस से आकर मन हुआ तो नजर डालेंगे
वरना देह को रात के अंधेरे में ही संभालेंगे,
तो भी खुद को जी भर के आईने के साथ बॉँटती हूँ।
आज जो करती हूँ वही कल फिर करना पड़ता है
उनका हर दिन का काम अलग रंग में सजता है।
मेरे किए का परिणाम धूल मिट्टी जैसो से ढक जाता है ।
उनके किए का परिणाम रुपैये पैसों में दिख आता है।
शायद इसलिए ही वो अक्सर कहते हैं,
आखिर तुम दिन भर करती क्या हो ?
वो ठीक ही तो कहते हैं
क्योंकि मैं घर चलाती हूँ पर घर
चलाने के लिए पैसे नहीं कमाती ।
जो करती हूँ उसका इक हिस्सा
आगत के लिए नहीं बचाती
इसलिए मैं किसी को कुछ खास नहीं लगती
हाँ क्योंकि मैं दिन भर कुछ नहीं करती ।