घर का चिराग
घर का चिराग
कुटिल मन की व्यथा,
क्यों ये समझ ना पाती
हर बार हुए अन्याय को
क्यों ये सह जाती
बेटी वध में क्यों नहीं होती जज्बाती
क्यों पश्चाताप के आंसू बहाती।
कभी सोचा क्या किसी ने
अगर बेटियां ना आती तो
घर का चिराग तुम कैसे पाते
शब्द व्योम यू छलनी करते
मन को जब वो एक माँ को ठगते।
क्यों वो कोख में उस को सींचे जाती
जब जन्म ही उसे ना वो दे पाती।
प्रसव पीड़ा को क्यों सहती
जब बेटी पैदा ही नहीं होती।
