ग़ज़ल - अरमां-ए-दिल
ग़ज़ल - अरमां-ए-दिल
हौले - हौले से उनके दिल के सब अरमां निकले
उनके हुज़रे में रखे जमीं - आसमां निकले
निपट तो जाते वो तक़रार के मसाइल सब
फासले अपने ही दिलों के दरमियां निकले
हमें तो फ़क्र था वो सिर्फ - ओ - सिर्फ मेरे हैं
उनके दिल में ही किसी और के निशां निकले
मैं किसी ग़ैर पे तोहमत की हिमाक़त क्या करूँ
मेरे अपने ही तो ग़ैरों पे मेहरबां निकले
वो जो पढ़ते थे क़सीदे हमारे महफ़िल में
वो किसी और की गज़लों के क़द्रदां निकले
वो जो रहते थे मेरे दिल के आशियाने में
इश्क की गली में उनके कई मकां निकले
जब भी देखा उन्हें ग़ैरों की हिमायत करते
मेरे मस्तक से लहकते हुए तूफ़ां निकले
कोई तरक़ीब ना छोड़ी उन्हें बुलाने की
'देव' करते भी क्या अपने ही बदगुमां निकले।।

