दीवार
दीवार
खड़ा हूँ मैं दीवार बनकर,
माटी के ईंटों के बल पर ,
सदियों से इसी जगह पर,
इतिहास के गवाह लेकर।
मिट्टियों की लहरों के नीचे था मैं दबा हुआ,
अनगिनत वर्षों बाद अंधेरे से निकाला गया,
फिर सहसा उस दिन देखा मैंने भी सवेरा,
जब वही सूरज की किरणों ने मुझे छुआ।
समय बदला, रंग बदला, रुप भी बदला,
कभी नया था आज टुकड़ों में मैं मिला,
खोज होते ही मेरे ,लोग आए मुझे देखने,
पर आश्चर्य उनसे ज्यादा, मैं था उन्हें देख के।
बदल गया है सब कुछ, बदला है चारों ओर
न मिलि कोई बैलगाड़ी ना मिले माटी के घर,
नव मानवों ने मेरे शरीर को तलाशा, लेकर यह आशा
कि समझ पाएं वो नक्काशी किए गए प्राचीन भाषा|
खामोश खड़े मुझे देखकर चले गए वो लिए हताशा
बहुपूर्वकालव्यापी मैं भी हूँ जितना हैं यह भाषा,
पर मृत यह भाषा कह ना पाई जो कहती थी सदियों से
कि "स्वागत करते है तुम्हें सिंधु नगरी में हम हृदय से|"
