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दीए की जंग

दीए की जंग

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एक शाम चौराहे पर 

दीया जल रहा था 

कभी मद्धम तो 

कभी भभक रहा था 


एक शाम चौराहे पर 

दीया जल रहा था 


चल रही थी हवा 

आंधी बनकर 

खुद को जलाए रखने को 

वह लड़ रहा था 


कभी वेग थमता 

वो संभलता 

कभी जो चलती वेगी 

वो आस्तित्व से लड़ रहा था 


एक शाम चौराहे पर

दीया जल रहा था 


कभी रौशन किए खड़ा था 

आज जहमत में पड़ा था 

थी लड़ाई उसकी या हमारी 

सोच में पड़ा था 


एक शाम चौराहे पर 

दीया जल रहा था 


जब जमाना 

चैन से सो रहा था

उसे रौशन रखने को 

वह हवा से लड़ रहा था 


काम नहीं आसां था 

हवा को सलामी दे या 

दे जमाने को रौशनी 

अजब धर्म संकट में पड़ा 

वो जल रहा था 


एक शाम चौराहे पर 

दीया जल रहा था 


नहीं झुकूंगा बैरी से 

सेवा धर्म है मेरा 

यही तो कर्म है मेरा 


टिमटिमाता दिया 

यह सोच कर 

एक बार जोर से 

भभक पड़ा था 


बड़ी देर से लड़ता रहा 

हवा के हर वार को सहता रहा 

घायल था, कमजोर बड़ा था

तेल का तेज भी 

कम हो पड़ा था 

हवा के इस झोंके से 

लड़ता, जूझता 

बुझ गया था 


एक शाम चौराहे पर 

जो दीया जल रहा था 


बुझ गया था दिया 

थी रौशन उसकी हिम्मत 

बुझे दीए के धुएँ ने 

अलख जगा रखी थी 

जमाने के नथुनों में 

अपनी खुशबू फैला रखी थी 

हवा से जूझता वो 

जमाने को जगा रहा था 


उठो, जागो, खड़े हो जाओ 

अंधेरा गहरा हो गया है 

युद्ध का बिगुल फूंकता 

वो समर में घूल गया था 


एक शाम चौराहे पर 

जो दीया जल रहा था


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