धरती की पुकार
धरती की पुकार


हे मनुष्य! तू प्रगति कर,
पर कर - तो - कर किस कीमत पर,
क्या मेरी ही आहूति देगा,
प्रगति यज्ञ की वेदी पर,
तू नाश करे - तू विनाश करे,
और मैं सह - सह चुप रह जाऊं,
तू मेरा शोषण करता रहे,
और मैं बैठी हां पछताऊं,
तू धूप में जब भी चलता है,
पेड़ों की छाया देती हूँ,
तू मुझसे ही सबकुछ पाता,
पर मैं कुछ भी न लेती हूँ,
जब भूख तुझे लग जाती है,
मैं अन्न का दान तुझे देती,
वो भूमि भी मुझसे पाता,
जिसपर करता है तू खेती,
उपकार अनेकों हैं मेरे,
तू किस - किस को उतराएगा,
जो प्रलयकाल मैं ले आऊं,
तो करनी पर पछताएगा.