दावानल
दावानल
ग्रीष्म ऋतु है भीषण, होता जल का शोषण,
जल हीन हैं जंगल, सब जन देखो।
मूढ जन जलाते हैं, दावानल लगाते हैं,
हानि बहुविध होती, तोल कर देखो।
जलते हैं खग मृग, हा हा कार अग जग,
भस्म द्रुम सरीसृप, दया भर देखो।
भरता है जग धूम, मानो रहा नभ चूम,
श्वास लेना है कठिन, रक्षा मग देखो१॥
प्रकृति रचाए जीव, त्यागते क्यों नर सीव,
लगाओ न दावानल, सृजन ही सीखो।
दावानल है कराल, जीवन का बने काल,
अंडे शिशु सब जले, दुष्टता न सीखो।
दावानल नाशे आस, विविधता होती नाश,
प्रकृति है वरदान, प्रेम नित सीखो।
शोभा धरणी की खोती, धरणी विद्रूप होती,
सम्यक उपाय कर, सजाना भी सीखो।२॥