STORYMIRROR

Anaaya Singh

Abstract

4  

Anaaya Singh

Abstract

चरित्र

चरित्र

1 min
355

चीर रहा था कपड़े, वो लाश सी बिछी थी,

छिटे खून के थे थिकड़े, वो जड़वत यू ही पड़ी थी,


जो प्रतिबिम्ब में वो देखे,तो नग्न फर्श पर पड़ी थी,

अचरज की बात यह की


रौंद गया वो और चरित्र से यह गिरी थी,

और चरित्र से यह गिरी थी।


सोच कर भी सोचूँ, तब यही बात सुनी थी,

पूर्व कर्मो का फल है, यही विधान की विधि थी !


समाज को जो देखे,हतप्रभ सी वो सधी थी,

अचरज की बात यह की


चीर गया वो और चरित्र से यह गिरी थी

और चरित्र से यह गिरी थी।


Rate this content
Log in

More hindi poem from Anaaya Singh

Similar hindi poem from Abstract