चरित्र
चरित्र
चीर रहा था कपड़े, वो लाश सी बिछी थी,
छिटे खून के थे थिकड़े, वो जड़वत यू ही पड़ी थी,
जो प्रतिबिम्ब में वो देखे,तो नग्न फर्श पर पड़ी थी,
अचरज की बात यह की
रौंद गया वो और चरित्र से यह गिरी थी,
और चरित्र से यह गिरी थी।
सोच कर भी सोचूँ, तब यही बात सुनी थी,
पूर्व कर्मो का फल है, यही विधान की विधि थी !
समाज को जो देखे,हतप्रभ सी वो सधी थी,
अचरज की बात यह की
चीर गया वो और चरित्र से यह गिरी थी
और चरित्र से यह गिरी थी।
