STORYMIRROR

Pragya Pandey

Abstract

4  

Pragya Pandey

Abstract

बदलता सिलसिला

बदलता सिलसिला

1 min
160

इन पत्थरों के शहर में मकान कहाँ दिखते हैं

ऊँची ऊँची इमारतें तो हैं मगर इंसान कहाँ दिखते हैं


बड़ी बड़ी खिड़किया जरूर हैं पर्दों में लिपटी हुई मगर

दीवारों से झांकते हुए वो छोटे रोशनदान कहाँ दिखते हैं


घरों के दरमियान फासले बेशक़ कम होते जा रहे हैं

मगर लोगों में वो भाईचारा कहाँ दिखता है


दिलों में अनकही दूरियाँ पनपती जा रही हैं

वो पूरा मोहल्ला हमारा कहाँ दिखता है।


Rate this content
Log in

Similar hindi poem from Abstract