बदलता सिलसिला
बदलता सिलसिला


इन पत्थरों के शहर में मकान कहाँ दिखते हैं
ऊँची ऊँची इमारतें तो हैं मगर इंसान कहाँ दिखते हैं
बड़ी बड़ी खिड़किया जरूर हैं पर्दों में लिपटी हुई मगर
दीवारों से झांकते हुए वो छोटे रोशनदान कहाँ दिखते हैं
घरों के दरमियान फासले बेशक़ कम होते जा रहे हैं
मगर लोगों में वो भाईचारा कहाँ दिखता है
दिलों में अनकही दूरियाँ पनपती जा रही हैं
वो पूरा मोहल्ला हमारा कहाँ दिखता है।