अस्तित्व की अस्मिता
अस्तित्व की अस्मिता
सहनशीलता सारी अब पड़ने लगी है भारी,
न बोले तो मूक समर्पण समझ कर करे वो मनमानी!
मुखर बने तो कीमत चुकाए सुनकर,
यह तो है बहुत सयानी!
क्या हालात से कर ले समझौता, जो होता है होने दें?
या बिगुल बजाये संघर्ष का,
साहस न कमतर होने देंI
कब, कैसी परिस्थिति से जूझे,
इसका हक़ किसको दे?
विवशता के बंधन से मुक्त करे तन-मन को,
सशक्तता के बीज बोने देंI
जीवन की डोर और जीने की आस के,
बंधन में जकड़ कर स्वयं को
लुप्तप्राय अस्तित्व की अस्मिता को
अब न भस्म होने देंI
