मनोभाव
मनोभाव
ज़िन्दगी की दौड़ में,
उलझने यूँ बढ़ गईं
फँस गयी कभी
परेशानियों के झाड़ में !
तो कभी मुश्किलों के रोड़ो
से टकरा कर गिर गईं !
घिर कर भीड़ में भी
तनहाइयों में सिमट गयी !
अकेलेपन के दौर में ,
जब सोचने की सोची,
थोड़ी सोच बदल गयी
कुछ और सुधर गईं
कुछ कर गुजरने की चाहत
अपनों की नज़दीकियां और
दोस्तों के संग की राहत
हौसलों का दामन पकड़ा
और बस निकल पड़ी !
रास्ते अनजान पर
सफर के रोमांच में
सांस और आस की
दूरियाँ यूँ मिट गयी
फासले कुछ कम हुए
मंज़िल नज़र आने लगी !