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Shalini Shalu

Abstract

4.4  

Shalini Shalu

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अर्द्धागिंनी

अर्द्धागिंनी

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216


जिगर मोम सा लिए 

आए थे दिल के दरवाजे तक 

हाथ पैरों में 

मौहब्बत की कम्पन थी 

माथे पर सिलवटें 

और मासुम सा चमकता पसीना 

कांपता हुआ हाथ आया था तुमतक 

तुम्हारे हाथ में 

सदैव के लिए ठहर जाने को 

मगर 

ये मुनासिब न हो सका 

शायद तुम्हें भी जरूरत न थी 

इन प्रेम का पैगाम देते हाथों की 

न जाने कैसे भडकते हुए तुम 

मुझ पर, मेरे अक्श पर 

एक सांस में चिल्ला उठते हो 

मानों खरीद रखा हो 

तुमने मुझे जन्मजात 

अपने एहसान तले दबा रखा हो 

और मुँह सील लेने को विवश हूँ मैं 

सहती रही सदियों से 

तुम्हारा असीम प्रेम समझकर 

उठाती रही 

तुम्हारी भौंडी मानसिकता का बोझ 

अपना कर्तव्य समझकर  

लेकिन तुमने माना ही नहीं 

मुझे अपना आधा हिस्सा 

अर्द्धागिनी का 

जो तुम्हारे कंधे का बोझ 

हल्का कर लेना चाहती थी 

 मन में तुम्हारा नाम बसाकर  

अपना घर तक छोड़ा था

 मैने तुम्हारे लिए 

रोते हुए मां, बाऊजी 

दरवाजे तक बिलखते रहे 

और चारों तरफ यादों का डेरा 

नम आंखों का कटोरदान 

हरपल भीगा रहता होगा अब 

फिर भी सबकुछ भूलकर 

तुम्हारा साथ चाहती रही

तुम्हें, तुम्हारे परिवार 

तुम्हारे अक्श को अपना बनाने की जद में 

झेलती रही 

तुम्हारे तीर से चुभते शब्दों को 

परन्तु ,तुमने सिर्फ तराजू में तौला है 

मेरे मासुम से प्रेम को 

औरत न होकर 

एक प्रयोगशाला बन गई हूँ 

भाँति भाँति के रसायनों से 

रोज गुजरी हूँ मैं 

जो तुम्हारे मन के मर्तबानों में 

जन्म लेते रहते हैं 

और उडे़ल देते हो 

वर्षो तक संग्रह के लिए 

लेकिन मेरा मन 

जो चाहता था

 सिर्फ तुम्हारी खुशी 

मन मयूर हुआ जाता था 

तुम्हें हंसते हुए देखकर 

मगर 

तुम्हारे मर्दाने अहंकार में 

 पीसती रही मेरी भावनाएं 

 इन सबके बीच 

मालूम नहीं कैसे नहीं दिखी 

तुम्हें मेरी आधी खुशी 

जो बाहर आकर 

खिलना चाहती थी 

 चमकते दांतों के साथ 

लेकिन घुटती रही 

तुम्हारी दी हुई

 यातनाओं के धुएँ में

बहते रहे आँसू 

भीगता रहा दुपट्टे का पल्लू  

जो मेरे लाख चाहने पर भी 

कभी धूप में सूखा ही नहीं।


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