अर्द्धागिंनी
अर्द्धागिंनी
जिगर मोम सा लिए
आए थे दिल के दरवाजे तक
हाथ पैरों में
मौहब्बत की कम्पन थी
माथे पर सिलवटें
और मासुम सा चमकता पसीना
कांपता हुआ हाथ आया था तुमतक
तुम्हारे हाथ में
सदैव के लिए ठहर जाने को
मगर
ये मुनासिब न हो सका
शायद तुम्हें भी जरूरत न थी
इन प्रेम का पैगाम देते हाथों की
न जाने कैसे भडकते हुए तुम
मुझ पर, मेरे अक्श पर
एक सांस में चिल्ला उठते हो
मानों खरीद रखा हो
तुमने मुझे जन्मजात
अपने एहसान तले दबा रखा हो
और मुँह सील लेने को विवश हूँ मैं
सहती रही सदियों से
तुम्हारा असीम प्रेम समझकर
उठाती रही
तुम्हारी भौंडी मानसिकता का बोझ
अपना कर्तव्य समझकर
लेकिन तुमने माना ही नहीं
मुझे अपना आधा हिस्सा
अर्द्धागिनी का
जो तुम्हारे कंधे का बोझ
हल्का कर लेना चाहती थी
मन में तुम्हारा नाम बसाकर
अपना घर तक छोड़ा था
मैने तुम्हारे लिए
रोते हुए मां, बाऊजी
दरवाजे तक बिलखते रहे
और चारों तरफ यादों का डेरा
नम आंखों का कटोरदान
हरपल भीगा रहता होगा अब
फिर भी सबकुछ भूलकर
तुम्हारा साथ चाहती रही
तुम्हें, तुम्हारे परिवार
तुम्हारे अक्श को अपना बनाने की जद में
झेलती रही
तुम्हारे तीर से चुभते शब्दों को
परन्तु ,तुमने सिर्फ तराजू में तौला है
मेरे मासुम से प्रेम को
औरत न होकर
एक प्रयोगशाला बन गई हूँ
भाँति भाँति के रसायनों से
रोज गुजरी हूँ मैं
जो तुम्हारे मन के मर्तबानों में
जन्म लेते रहते हैं
और उडे़ल देते हो
वर्षो तक संग्रह के लिए
लेकिन मेरा मन
जो चाहता था
सिर्फ तुम्हारी खुशी
मन मयूर हुआ जाता था
तुम्हें हंसते हुए देखकर
मगर
तुम्हारे मर्दाने अहंकार में
पीसती रही मेरी भावनाएं
इन सबके बीच
मालूम नहीं कैसे नहीं दिखी
तुम्हें मेरी आधी खुशी
जो बाहर आकर
खिलना चाहती थी
चमकते दांतों के साथ
लेकिन घुटती रही
तुम्हारी दी हुई
यातनाओं के धुएँ में
बहते रहे आँसू
भीगता रहा दुपट्टे का पल्लू
जो मेरे लाख चाहने पर भी
कभी धूप में सूखा ही नहीं।