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अन्तराल

अन्तराल

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क्या किसी ने छूकर देखा है यह अन्तराल।
कितनी पीड़ा है इस अंतर्मन में,
कितना रक्त बह चुका इस हृदय से।
क्या किसी ने छूकर देखा है यह अन्तराल।

स्वर्ण, चन्दन सब इन पर ही मोहित हैं,
क्या कनक के उस हृदय पर भी कभी कोई हुआ है मन्त्रमुग्ध,
गंगोत्री के जितना पावन हृदय,
उद्गम है कोमल भावनाओं का।
क्या किसी ने छूकर देखा है यह अन्तराल।

जाने कितने सावन बीते, बीते कितने मौसम,
हर ऋतु में सूना ही रहा हृदय का ये उद्गम।
कोई बरसा दे जल इस पर,
उफन उठे भावनाओं का ज्वार,
कर दे कोई इस पीड़ा का अन्त,
छूकर हृदय यह विशाल।
क्या किसी ने छूकर देखा है यह अन्तराल।


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