अनकहा प्रेम
अनकहा प्रेम
क्या तुम्हें भी प्रेम था ?
बताया भी नहीं कभी
जताया भी नहीं कभी
मैं जब भी रूठा तो मुझे
मनाया भी नहीं कभी
रोया तो
चुप कराया भी नहीं कभी ?
तेरे लिए था जो भी
मेरे इस दिल में कहीं
मैंने भी तुम्हें कभी
बताया ही नहीं।
होती थी बातें हमारी
होती थी मुलाकातें हमारी
फिर न तुमने और मैंने भी
पुछा दिल का हाल कभी ?
एक रोज सुबह उठकर देखा
तुम्हारी दी हुई किताब को
पन्नों से निकल आया
मेरे लिए एक गुलाब को।
आज समझ पाया हूं मैं
तुम्हारे उस अनकहे प्रेम को।