आओ सहेजें कतरा कतरा
आओ सहेजें कतरा कतरा
जो मनुज होने का मान तुम्हें थोड़ी मानवता दिखलाओ।
बुद्धि बल बस बहुत हुआ सौंदर्य हृदय का बिखराओ।।
खो कर जीवन संतुलन वसुधा विचलित ना हो जाए ,
सही समय है स्वार्थ स्वप्न से अब तो बाहर आ जाओ ।।
दूषित धरित्री का हर कोना, प्राण वायु भी है दूषित ।
लोभ अग्नि जितनी प्रचंड अच्छाई उतनी ही संकुचित ।।
प्रगति की अंधी दौड़ में कूदे भूल गए तुम क्यूँ यह बात,
परिणाम अशुभ ही होंगे ग़र कार्य करोगे सब अनुचित।।
इस भू का हर जीव इसी प्रकृति की सृजन कल्पना है।
उनमें भी है प्राण अनुभव करते हर पीड़ा भावना है ।।
उनके जीवन पर लगा दाव खुद कैसे बच पाओगे ?
जो ना समझे अभी तो ग्लानि की ज्वाला में जलना है ।।
माना मनुष्य है पृथ्वी पर ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना ।
अचला पर नहीं एकाधिकार याद सदा तुम यह रखना ।।
अवांछित अभिलाषाओं का अश्व अगर ना पाए रोक ,
शुष्क क्षिति से हो जाएगा जीवन अमृत का झरना ।।
छिन्न किया उर्वी का आँचल उससे भी मन नहीं भरा ।
जलधि के जीवों पर भी ला किया खड़ा तुमने ख़तरा ।।
चेत जाओ जो देर हुई तो फिर पीछे पछताओगे,
जीव मात्र है निधि अमूल्य आओ सहेजें कतरा कतरा ।।