आज फिर एक दिन निकल गया...
आज फिर एक दिन निकल गया...
आज एक और दिन निकल गया, एक और पल गुज़र गया,
वो मिला था और फिर अपने रस्ते हो लिया...
रास्ते तो कई मुझे भी दिखते हैं, पर आखिरी सड़क एक है,
उस अनंत तक जाने की सीढ़ी एक है,
आखिरी मंज़िल एक है, उसके बावजूद इंसान अलग हैं।
किसी ने देख कर भी अनदेखा कर दिया,
जिसने दुनिया देखी ही नहीं, वो पूछ बैठा,
'आजकल दिखती ही नहीं! '
किसी के दुःख में दुःख हुआ,
किसी की ख़ुशी में दुःख हुआ,
आज फिर एक दिन निकल गया
आज फिर एक हवा का झोंका आया,
उस बूढ़े किताब के तजुर्बे के पन्नों को उड़ा गया,
उसकी खुशबू फैला गया,
उन पिले पन्नों ने कुछ सिखाया,
शायद किसी कवि के तड़पते हुए दशा को बतलाया,
खून की खुशबू और फूलों के ताज से सजे थे वो पन्ने,
किसी शहीद की शहीदी का गुणगान आज फिर हुआ,
आज फिर एक दिन निकल गया ।
आज फिर कई चेहरे खिलखिलाये,
कलियाँ ही नहीं, पत्ते भी मुस्कुराये,
आज फिर एक शायर के कलम ने शायरी गुनगुनायी,
आज फिर वो बहुत कुछ बोली पर 'बोल' न पायी,
आज फिर वो अकेले ही बगिया में नज़र आये,
बूढ़ी काकी की कहानियाँ आज फिर सुनने को आयी,
उस प्रेमी का दिल आज फिर से मचल गया,
आज फिर एक दिल निकल गया ।
आज फिर मैं एक उलझन में पड़ गयी,
गरीबी और अमीरी की समझ का अंतर भूल गयी,
थे तो दोनों नौ साल के,
एक अपनी गरीब माँ की गोद में,
एक बिन माँ के महल में,
आज फिर एक जुबां और बेज़ुबान का फर्क भूल गयी,
कोयल तो गाती रही पर वो आज भी खामोश रही,
आज फिर एक दिन निकल गया ।
हर दिन की तरह आज भी सवेरा
होते एक सपना टूट गया,
अँधेरी रातों ने सपने दिखाए और
दिन के उजाले ने अंधेरा भविष्य,
वो फिर दौड़ गया, मंज़िल की ओर,
जो नज़र तो नहीं आ रही थी,
पर शायद उसी दिशा में थी,
आज फिर एक दिन निकल गया ।
आज फिर मैंने कुछ ठान लिया,
कुछ लोगों को याद किया,
कुछ को माफ़ किया,
अपनी ग़लतियों को सुधारा,
अपने 'कल' पर रोई और 'कल' का निर्णय लिया,
कुछ चेहरे और धुँधला गए,
कुछ चेहरों को दिल में संजो लिया,
आज फिर एक दिन निकल गया ।
आज फिर उस तारे को देखा,
चाँद का क्या है! - आज है, कल नहीं।
उस तारे में तुम्हें देखा,
चाँद में तो सनम नज़र आता है,
मैंने उस तारे में अपने अगले जन्म को देखा,
वहाँ तुम्हारे साथ बैठे, 'वसुधा' को कविता लिखते देखा,
आज फिर एक दिन निकल गया....
