पेंशन
पेंशन
व्यवस्थाएं चरमरा रही है, देश का ढाँचा पूरी तरह से बिगड़ चुका है। शासन और प्रशासन ने दिमाग के संवेदनशील हिस्से पर ऐसा ताला डाल दिया है कि बड़े-बडे़ हादसे भी इन तालों को खोलने में सक्षम नहीं है। मानवता को नींद की गोलियां खिलाकर चिर निद्रा में सुला दिया गया है, और चलने दो मनमानी रिश्वतखोरी, बेईमानी और भ्रष्टाचार की। प्रो. त्रिवेदी चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे, नहीं दूंगा, एक पैसा भी रिश्वत के नाम पर, नहीं दूंगा। अपनी ही पेंशन, प्रोविडेंट फंड और ग्रेच्युटी की फाइलें निकलवाने के लिये मुझसे यानि प्रो.रमाकांत त्रिवेदी से आप लोग रिश्वत मांग रहे हैं। डी.ए.वी. कॉलेज का प्रोफेसर रहा हूँ मैं। आपने आदर्शों, उसूलों और सि़द्धान्तों के साथ कोई समझौता नहीं करूँगा मैं। पांच साल हो गये इन दफ्तरों के चक्कर काटते-काटते जब तक इन बूढ़ी हड्डियों में दम है, अपनी शिक्षा पर कोई आंच नहीं आने दूंगा। जीवन भर बच्चों को सच्चाई और ईमानदारी का पाठ पढ़ाने वाला, न्याय के लिये लड़ने और अन्याय के आगे घुटने न टेकने की शिक्षा देने वाला रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बड़े-बड़े भाषण देने वाला शिक्षक, क्या मुंह दिखाएगा अपने विद्यार्थियों को? कि देश में व्याप्त भ्रष्टाचार को ठीक करने के बजाय मैंने भी उसके आगे घुटने टेक दिये। इतना कहकर अपनी छड़ी उठाकर तपती दुपहरिया में बड़बड़ाते हुए पैदल ही अपने घर की ओर चल दिये। शिक्षा विभाग के अकाउंटस डिपार्टमेंट के तमाम अधिकारी एक दूसरे के चेहरों पर उतरते चढ़ते भावों को देखते रहे। तभी उनमें से एक अधिकारी मि. महाजन बोले- ‘अरे चिंता मत करो, धीरे-धीरे ये भी लाइन पर आ जायेगा।’ अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ सकता।’ पांच साल पहले ही दस हजार रूपये दे दिये होते, तो आज अपने पांच लाख रूपये और पेंशन लेकर आराम से जीवन व्यतीत कर रहे होते। मगर नहीं, मरते मर जाएंगे अपने आदर्शों की
इधर प्रो. रमाकांत त्रिवेदी गर्मी से बेहाल जब घर पहुँचे तो उनके मित्र डॉ. आनंद उनका इन्तजार कर रहे थे, उन्हें देखते ही भड़क उठे, ‘मार आये सिर दीवारों से।’ अरे, तुम किन लोगों को सुधारने लगे हो। इतना सिर अगर तुमने किसी मंदिर में जाकर मारा होता, तो शायद पत्थर की मूरत भी पिघल जाती। मानवता और संवेदनाओं ने जब धन की काली चादर ओढ़ ली हो, तो चारो ओर ऐसा अंधकार फैल जाता है कि दूसरों का दर्द और पीड़ा उन्हें दिखाई नहीं देते, वरना तुम्हारे जैसे इंसान की पीड़ा तो पूरी मानव जाति को झिंझोड़ कर रख दे। संतानविहिन दम्पत्ति, बुढ़ापे का दौर, पत्नी कैंसर की मरीज, उसका इलाज तो दूर, दो वक्त की रोटी का भी जुगाड़ न हो जिसके पास। ऐसे इंसान की पेंशन प्राविडेंट फण्ड और गे्रज्युटी की फाइलों को मात्र कुछ रूपयों के लालच में दबा कर रखने वाले अधिकारियों ने मानवियता पर ऐसा करारा तमाचा मारा है कि देखने सुनने वालों की आत्मा भी छलनी-छलनी हो जाती है। तुम्हारे जैसा इंसान जो अपने ज्ञान की ज्योति से जिंदगी भर समाज के अंधकार को मिटाता रहा, उसके अपने जीवन में सिवाय अंधकार के कुछ नहीं बचा। अब यह अंधकार इतना घना होता जा रहा है कि जब इसके घनघोर बादल काली घटा बन के बरसेंगे तो समाज फिर से अंधकार में विलिन हो जाएगा।
माफ करना रमाकांत मैं भी आते ही तुम पर बरस पड़ा। तुम वैसे ही इतने परेशान हो, चलो खाना खा लो तुम्हारी भाभी ने तुम्हारे पंसद की दाल और बैंगन का भुरता बनाया है। पहले जरा सुलेखा को तो देख लूं, प्रो. त्रिवेदी बोले। ‘हाँ-हाँ बहुत फ्रिक है न तुम्हें उसकी’। कितनी बार कहा है उसे इस तरह अकेली छोड़ कर मत जाया करो। जब कभी इतनी देर के लिये जाना हो तो अपनी भाभी को फोन करके बुलवा लिया करो। वो तो तुम ठीक कहते हो डां. पर तभी डॉ. आनंद ने कहा ‘ओफ माफ करना, मैं तो भूल ही गया था, तुम्हारा फोन दो महीने से कटा हुआ है। मैंने कहा तो था, मैं बिल भर देता हूँ, पर तुम्हीं नहीं माने। प्रो. त्रिवेदी तो उन दिनों अपनी डाक्टरी से फुर्सत ही नहीं होती थी। तुम्हारी बदौलत ही आज मेरे दोनों बच्चे विदेश में बड़े पदों पर नौकरी कर रहे हैं। मेरे बच्चों को जिस शिक्षा की दौलत से नवाजा है तुमने, उसकी कीमत तो मैं तुम्हें लाखों रूपये देकर भी अदा नहीं कर सकता। इसलिए दिल में कभी यह ख्याल भी मत लाना कि मैं तुम्हारे ऊपर कोई एहसान कर रहा हूँ। देखो रमाकांत कभी-कभी जिंदगी में ऐसा समय आ जाता है कि इंसान को अपने सिद्धांतों को छोड़कर समाज की धारा के अनुसार चलना पड़ता है। अभी भी मेरी बात मान लो मुझसे पैसा लेकर इन रिश्वतखोरों के मुंह पर मारो ताकि तुम अपनी मेहनत की कमाई को भ्रष्टाचार के चंगुल से निकाल सको। नहीं होगा मुझसे यह सब प्रो. त्रिवेदी बोले, ‘अपने ही आचरण को भ्रष्ट कर क्या मैं भी भ्रष्टाचार की कड़ी में नहीं जुड़ जाऊँगा? ऑफिस के बाहर बड़े-बड़े शब्दों में अंकित है ‘रिश्वत देना और लेना दोनों अपराध है।’ मैं इस उम्र में अपराधी होने के भाव को नहीं झेल पाऊँगा। मुझे अपने आप से नफरत हो जाएगी देश में सुधार लाने की जो छोटी सी किरण बाकि है, वह भी टूट जाएगी। मैं यदि इस अव्यवस्था को सुधारने में सक्षम नहीं हूँ तो मैं भी उसका हिस्सा बन जाऊं। ये मुझे गवारा नहीं है। शहीदों की शहादत के चर्चें उनके शहीद होने के बाद ही होते हैं और उससे आगे आने वाली पीढ़ियों को भी प्रेरणा मिलती है और वैसे भी मैंने अपना पूरा जीवन जी ही लिया है। अगर मेरी मौत इनकी सोई हुई संवेदनाओं को जगा दे, मानवता को जीवित कर दे तो मैं समझूगा, मेरी मौत भी सार्थक हो गई। कैसी बाते करते हो, तुम रमाकांत। ‘यह देश तुम जैसे ईमानदार, चरित्रवान, दृढ़ प्रतिज्ञ लोगों पर ही तो टिका हुआ है। अभी तो तुम्हारे कंधों पर भ्रष्टाचार में आकर डूबे हुए देश को संवारने की जिम्मेदारी है। मैं इन लोगों को क्या सवांरूंगा? रमाकांत बोले ‘इन जैसे लोगों को तो ईश्वर ही राह दिखा सकता है, काला धन उस विषैले नाग की तरह है जब यह डसता है तो, इंसान पानी भी नहीं मांग पाता। चाणक्य ने भी कहा है गलत लेना ही पड़ता है।
मुझे तो पचास साल पुराना समय याद आता है, तब सुख सुविधाओं, ऐशों आराम के साधनों की कमी थी। पैसो का अभाव रहता था, मगर फिर भी जीवन खुशहाल था। परिवारों में आपस में प्रेम, सौहार्द्र, आत्मीयता, मेंल जोल और स्नेह के भाव थे। दूसरों का दुःख देखकर मन इतना बैचेन हो जाता था। जैसे दुःख का पहाड़ हमारे ही सिर पर गिरा हो संसाधनों का अभाव था। एक दूसरे से दूर रहते हुए भी दिलों से एक दूसरे के बहुत करीब थे। न ही टेलीफोन की सुविधाएं थी और न ही यातायात के इतने साधन। मगर पत्र व्यवहार वो हथियार था, जो दिलों को चीरकर आत्मा में इस तरह समा जाता था कि आज भी यादों के पन्नों को परत दर परत खोलना शुरू करें तो, संवेदनाओं के शब्दों से पिरोयी हुई माला का एक-एक मोती रिश्तों की उस गहराई को छू जाता है कि उसके बाद रिश्ते अपनी पहचान खो दे संभव ही नहीं हो पाता था। मगर आज पैसों की बढ़ती हुई भूख ने रिश्तों को छोटे से दायरे में समेट कर रख दिया है। परिवार यानि पति पत्नी और बच्चे। पहले संयुक्त परिवारों में बच्चों को जो संस्कार मिलते थे उन्हीं संस्कारों से बंधे हुए वह परम्पराओं और मर्यादाओं का पालन करते थे और इसी कारण उनमें नैतिकता और ईमानदारी थी। मगर पैसों की अंधी दौड़ के पीछे भागता इंसान इंसानियत को पीछे छोड़ता जा रहा है जहाँ इंसानियत ही मरती जा रही है वहाँ इंसान कहाँ बचेंगें। इसी कारण रिश्तों की हत्या हो रही है। भाई-भाई की हत्या कर रहा है, पति-पत्नी की, पुत्र माता-पिता, नाना-नानी, दादा-दादी जैसे प्रेम और ममत्व भरे संवेदनशील रिश्तों की हत्या कर रहा है। संवेदनाएं दौलत के हथियार तले कुचली जा रही है और मानव उस पर बैठा अठ्ठास कर रहा है और दूसरी तरफ युवाओं द्वारा आत्महत्या और हादसों और दुर्घटनाओं में होने वाली युवाओं की मौत मुझे बुरी तरह झिझोंड़ देती है और मेरे सामने एक सवाल खड़ा हो जाता है कि ये फूल खिलने से पहले ही क्यों मुरझा जाते हैं? कहीं उन्हें दूसरों के दर्द और बेबसी से तो नहीं सींचा गया। शायद ये काफी हद तक सही भी है। मुझे अपने ही गांव के जमींदार की बीस साल पुरानी घटना याद आ रही है, जब ठाकुर जगतसिंह ने किसान की गिरवी रखी जमींन पर कब्जा कर लिया था और किसान द्वारा मूलधन और ब्याज की राशि अदा कर चुकने के बाद भी जब किसान की जमीन के कागज ठाकुर जगतसिंह ने वापस नहीं किये तब उसके जवान बेटे ने जमींदार द्वारा किए जा रहे अत्याचार का विरोध किया। एक मामूली सा किसान का बेटा उनके टुकड़ों पर पलने वाला उनके आगे ज़ुबान खोले यह एक जमींदार को कैसे बर्दाश्त हो सकता था। उसने हंटर उठाया और उसे ज़ुबान खोलने की ऐसी सजा दी कि उसकी ज़ुबान सदा के लिये खामोश हो गई। बाहर जब हंटर की मार से छटपटाता युवक अंतिम सांसे गिन रहा था, घर के भीतर प्रसव वेदना की असहनीय पीड़ा के बाद जमींदार की पत्नी ने कुल दीपक को जन्म दिया। जमींदार की हवेली कुल के दीपक की रौशनी से जगमगा उठी। किसी के घर के चिराग को बुझाकर कोई अपने घर के चिराग को कब तक रोशन रख सकता है। कहते हैं ‘भगवान के घर देर है अंधेर नहीं।’ ठीक बीस साल बाद उसी जग उसी दिन सर्पदंश से हुई बेटे की मौत से जमींदार के घर का चिराग सदा के लिये बुझ गया। ‘जैसी करनी वैसी भरनी’ जैसी कहावतों को ऐसी घटनाओं ने ही जन्म दिया है। अब तुम्हीं बताओ रमाकान्त इस घटना से क्या आशय निकाला जाए? मैं तो यही समझता हूँ डॉ. आनंद जो पीड़ा हम दूसरों को देते हैं, हमें स्वयं भी उस दर्द को भोगना पड़ता है।’ और इस सत्य से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि हम स्वयं ही अपने ही कर्मों से अपने ऊपर ऐसा कर्ज चढ़ा लेते हैं जिसे हमें देर सबेर उतारना ही पड़ता है। एक बार अदालत से भले ही इंसान को न्याय न मिले मगर ईश्वर की अदालत से कोई नहीं बच पाता, वहाँ तो सबको न्याय मिलता ही है। डॉ. आनंद ने सहमति जताते हुए कहा, तुम बिल्कुल ठीक कह रहे हो रमाकांत, पर आज इंसान सब कुछ भुगतने सहते हुए भी अपने द्वारा किए जा रहे गलत कामों के कुपरिणामों को कहाँ सोच पा रहा है, क्योंकि उसकी सोच पर धन के काले बादल मंडराते रहते हैं, उसे पैसो के सिवाय कुछ दिखाई ही नहीं देता। उसका तो लक्ष्य ही सिर्फ यह है कि धन आना चाहिये और जब इंसान किसी चीज को लक्ष्य बनाकर चलता है तो वह उसे हासिल तो कर ही लेता है। मगर उसे हासिल करने के लिए वह कौन सा मार्ग अपना रहा है उस तरफ से अपनी सोच और आंखों को पूरी तरह से बंद कर लेता है तब वह अपने काले धन को ईश्वर का जामा पहनाकर, ईश्वर को भी धोखा देने से नहीं हिचकता वह समझता है पूजा पाठ, धार्मिक अनुष्ठानों व मंदिर निर्माण जैसे कार्यों पर धन खर्च करके वह ईश्वर को खरीद लेगा और ईश्वर उसे उसके गलत कार्यों के लिये दंडित नहीं करेगा तो यह उसकी भूल होती है। वह रोज गीता का पाठ तो कर लेगा, मगर उसका अनुसरण नहीं करेगा। रोज ईश्वर से अपने गलत कामों के लिये माफी मांग लेगा लेकिन गलत काम करना नहीं छोड़ेगा। पैसो की दौड़ में वह इतना आगे निकल गया है कि सच्चे सुख और आनंद से वंचित हो गया है। अब तुम्हारे जैसे इंसान की आत्मा को पीड़ा पहुंचाकर शिक्षा विभाग के अधिकारियों ने अपने सिर पर पाप का बोझ बढ़ा लिया है और जब पाप का यह घड़ा भरेगा तो फूटेगा ही।
तभी डॉ. आनंद की पत्नी रेखा ने प्रवेश किया और शिकायत भरे लहजे में बोली, आप दोनों मित्र बातों में इतने मशगूल हो जाते हो, कि सारी दुनिया भूल जाते हो। मैं कब से खाना बनाकर इंतजार कर रही थी कि अब आते होंगे, अरे भई! अपना नहीं तो कम से कम सुलेखा भाभी का तो ख्याल किया होता बेचारी मरीज है, बिस्तर पर पड़ी है कुछ कह नहीं सकती। मगर उन्हें समय पर दवाई और खाना देना तो आपकी जिम्मेदारी है न? रात के दस बज रहे है। सुलेखा जो पास ही बिस्तर पर लेटी उनकी बातें सुन रही थी, बोली अच्छा हुआ जो भाई साहब लेट हो गये इसी बहाने आप भी आ गई और आप दोनों हमारे साथ और समय गुजार लेंगे, आप दोनों के आने से इस उदासी भरे घर में रौनक आ जाती है। मरीज पर दवा उतना काम नहीं करती, जितना अपनो का प्रेम, सहानुभूति। और वैसे भी दोपहर को भाई साहब ने मुझे खिचड़ी और दवाई दे दी थी आपके प्रेम से भरी स्वादिष्ट खिचड़ी खाकर तो मेरी आत्मा इतनी तृप्त हो गई कि लगता है अब कुछ खाने की जरूरत ही नहीं है। रेखा बोली, अभी तो आपको मेरा बनाया हुआ दलिया भी खाना है, वो तो मैं जरूर खाऊंगी। पता नहीं फिर आपके हाथ का खाना नसीब हो न हो। कैसी बात करती हो सुलेखा हम लोग एक महीने के लिये ही तो जा रहे कोई हमेशा के लिये तो विदेश बसने नहीं जा रहे और वह भी बहू की डिलिवरी का समय है वरना तुम्हें इस हाल में छोड़कर नहीं जाती। तुम बिल्कुल निश्चित होकर जाओ, तुम्हारा इस समय बहू के पास रहना बहुत जरूरी है। फिर सुलेखा ने अपने बिस्तर के नीचे से छोटा सा लाल पर्स निकाला और रेखा को देते हुए कहा, ये बच्चे के लिये सोने के कड़े है ये तुम स्वयं मेरी तरफ से उसके हाथ में पहना देना। ये मैंने तब बनवाएं थे जब मुझे 7 माह का गर्भ था। बाजार से आ रही थी, सड़क पार करने में एक कार से टक्कर हो गई। बच्ची पेट में ही मर गई आपरेशन करके बच्ची को निकाला गया, उसके बाद हमेशा के लिये हम संतान सुख से वंचित हो गये। बस उसके बाद से इन कड़ो को उसकी याद में हमेशा अपने सीने से लगाये रखती हूँ। इन पांच सालो में एक-एक करके सब जेवर बिक गये मगर इन कड़ों को बेचने का मन नहीं हुआ। फिर इसे अपने पास ही रखो न, सुलेखा ‘मुझे क्यों दे रही हो’? मेरे बाद इन्हें कौन संभालेगा। इसलिए इनको सही जगह पर पहुंचा रही हूँ। बहूँ के पास मेरी ये अमानत हमेशा सुरक्षित रहेगी। हम औरतें भी यादों को कैसे सहेजकर रखती है कहते हुए रेखा की आंखे भर आई।
डॉ. आनंद सुलेखा और प्रो. रमाकांत तीनों खाने की टेबल पर बैठे थे। रमाकांत बोले, भाभी इतना स्वादिष्ट खाना मत खिलाया करिये आदत बिगड़ जाती है। अब आप दोनों तो कल जा रहे हैं लगता है पीछे से भूखा ही रहना पड़ेगा। क्यों रहना पड़ेगा भूखा, रेखा ने कहा- मैंने आप दोनों लायक राशन खाने पीने का सामान रसोई में रख दिया है। आप खाना बनाने का बिल्कुल भी आलस मत करियेगा, आपको तो सुलेखा जी का भी ख्याल रखना है, वरना उनकी तबियत और बिगड़ जाएंगी। मैं सुलेखा का पूरा ख्याल रखूंगा। आप लोग निश्चित होकर जाइये।
डॉ. आनंद और रेखा को गये आठ दिन बीत गये थे सुलेखा का स्वास्थ दिन प्रतिदिन गिरता जा रहा था। चार दिन से उसने कुछ खाया भी नहीं था। रमाकांत बहुत ही उदास और दुःखी थे। वह पत्नी के सिरहाने बैठ गये और उसका अपने हाथ में लेकर बोले, सुलेखा जब तक तुम्हारा साथ था एक हिम्मत थी मेरे अन्दर। तुम्हारे भावनात्मक सहारे ने हमेशा मुझे अपने सिद्धान्तों और उसूलों पर अटल रहने की शक्ति दी थी। हर पल तुम्हारा साथ छूटने का डर मुझे कमजोर बनाता जा रहा है। मुझे लगता है कि भ्रष्टाचार की गिरफ्त में कैद पड़ी मेरी फाइलें मुझे चिड़ा रही हो और कह रही हो, हाँ हाँ जियो अपने उसूलों के साथ और मार डालों अपनी पत्नी को बिना इलाज के। इतना कह वह फूट-फूट कर रोने लगे। पत्नी ने उनके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए उन्हें ढो मुश्किलों से लड़ने की ताकत देती रहती हो। लेकिन अब तुम्हें जिंदगी की लड़ाई को अकेले ही लड़ना होगा। इतना कह सुलेखा की सांस उखड़ने लगी। मैंने उसके चेहरे की तरफ देखा उसकी पीड़ा कुछ ज्यादा ही बढ़ गई थी, उसका चेहरा नीला पड़ता जा रहा था। रात के गहन अंधकार को चीरता हुआ मौत का घना साया उसके बिस्तर के करीब ही था, तभी जोर से बिजली चमकी। बादलों की गड़गड़ाहट उसके जिस्म को चीरती हुई उसकी आत्मा को लेकर घोर अंधकार में विलिन हो गई और ऐसा लग रहा था जैसे बरसों से आँके हुए सुलेखा के आंसू तेज हवाओं के साथ मूसलाधार बारिश में परिवर्तित हो बरसने लगे हो, और आँसूओ की यह बाढ़ किसी तबाही का अंदेशा दे रही हो। बत्ती गुल हो चुकी थी। मैंने माचिस ढूँढी
पुरुष कितना कमजोर होता है। नारी के बिना वह जीवन की कल्पना भी नहीं कर पाता। बिस्तर पर पड़ी बीमार पत्नी भी उसका मनोबल बढ़ाती रहती है। मगर उसकी मौत उसे इस कदर तोड़ देती है कि उसके कमजोर शरीर में बची-खुची सांसे जैसे इस क्षण का इंतजार कर रही है। सुलेखा की मौत से दुःखी प्रो. त्रिवेदी ने सुलेखा का निर्जीव देह पर अपना सिर रखा और इस मानसिक आधात ने उन्हें भी सांसारिक दुःखों से निरक्त कर दिया।
चार दिन तक दोनों के मृत शरीर घर में ही पड़े सड़ते रहे। लगातार बारिश के कारण आवाज ही कम थी। लाशों की सड़न की बदबू ने जब पड़ोसियों के दरवाजो पर दस्तक दी तब कही सोई पड़ी हुई मानवता ने उन्हें झकझोरा। पड़ोसियों ने पुलिस को खबर दी। अंदर से बंद दरवाजे को तोड़ा गया। घर हालात गरीबी पर आंसू बहा रहे थे और दूसरी तरफ दीवारों पर लटके गोल्ड़ मैंड़ल, शिक्षा में उनके सराहनीय योगदान के लिये मिलने वाले एवार्ड, और रेडक्रास सोसायटी में उनके द्वारा प्रदान की सेवाओ के प्रशस्ति पत्र और रक्तदाता की सूची में सर्वोच्च स्थान पाने वाले चित्र समाज में उनके सम्मानजनक स्थान को दर्शा रहे थे। तभी पुलिस की निगाहें टेबल पर रखी उनकी ड़ायरी पर गई। किसी भी मौत के बाद उसकी डायरी उसके जीवन के उन पहलूओं का खुलासा करने का माध्यम होती है, जिसकी वजह से मौत जैसे खौफनाक रास्ते पर बढ़ने की सच्चाई से पर्दा उठ सके।
मैं प्रो.रमाकांत त्रिवेदी स्वंय को अपनी पत्नी सुलेखा का गुनहगार मानता हूँ। पिछले दो साल से कैंसर की बीमारी से जूझती सुलेखा का मैं उचित इलाज नहीं करवा पा रहा हूँ धिक्कार है मुझ पर। अपने आप से मुझे नफरत सी हो रही है। मुझे सिद्धांत और आदर्शों ने इतना स्वार्थी बना दिया है कि मुझे उसके आगे सुलेखा की पीड़ा भी दिखाई नहीं देती। पुरुष अपने अंहकार को स्वाभिमान का जामा पहनाकर जीवन भर स्त्री को छलता रहता है और स्त्री पुरुष पर जरा सी विपदा आने पर अपना सब कुछ न्यौछावर कर देती है। त्याग, दया और ममता के गुणों ने उसे सचमुच देवी बना दिया है। वह हर दुःख को अपना भाग्य समझ कर सह लेती है और उफ तक नहीं करती। ब्लड कैंसर ने उसके शरीर को जिंदा लाश बना दिया है। अब तो मुझसे भी उसकी यह पीड़ा नहीं देखी जाती और मैं ईश्वर से प्रार्थना करता हूँ इसे कष्टों से मुक्ति दें। पिछले चार दिन से वह भूखी रहकर जिंदगी और मौत की लड़ाई लड़ रही है। भूख की पीड़ा भी कितनी कष्टदायी होती है। यह मैंने भी इन चार दिनों में भूखे रहकर महसूस किया। वैसे भी अब जीवन का कोई औचित्य नहीं है। शिक्षक होने के नाते आत्महत्या मैं कर नहीं सकता। क्योंकि मैं अपने विद्यार्थियों के सामने यह संदेश छोड़कर जाना नहीं चाहता कि वह सोचे मैंने परिस्थितियों से लड़ने की बजाय उसके आगे हथियार डाल दिये और मौत का आसान रास्ता चुन लिया। क्योंकि बच्चे जिसे अपना आदर्श मानते है उसका ही अनुसरण करते हैं। मैं समझता हूँ शिक्षक को विद्यार्थियों के प्रति अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह जिंदगी की आखिरी सांस तक करना चाहिये।
यदि भूख से मेरी मौत हो जाती है तो मेरा सरकार से निवेदन है कि सभी शासकीय अधिकारियों को उनके सेवा से निवृत्त होने के साथ ही उनकी बुढ़ापे की लाठी, उनका सहारा उनकी जीवन भर की बचत, उन्हें उसी समय सौंप दी जानी चाहिये और उसी दिन से उनकी पेंशन भी मिलनी शुरू हो जानी चाहिए। मुझे सरकारी सेवा से निवृत्त होते ही मेरी फाइलें मुझे सौंप दी जाती तो, मैं भी अपनी पत्नी के साथ न्याय कर पाता और इस तरह हारकर निराशा को गले न लगाता और न ही भ्रष्टाचार की जड़ों को मजबूत होने के लिये और खुराक मिलती और मेरा एक निवेदन और है मेरी पांच लाख की राशि में से दो लाख की धनराशि को मेरी तरह स्वाभिमानी सम्मानजनक व्यक्ति को दे दिया जाएं, जो अपनी बीमार पत्नी के इलाज के लिए किसी के आगे हाथ नहीं पसार सकता। शायद इससे मेरी और मेरी पत्नी की आत्मा को शांति मिल सके। और शेष तीन लाख ऐसी संस्था को सेवार्थ दे दिया जाएं जहाँ भूख की व्याकुलता किसी के जीवन को अपना ग्रास न बना सके और उन लोगों से भी मैं एक सवाल पूछना चाहूँगा जिन्होंने अपना धर्म ईमान सब कुछ दौलत को ही मान लिया है। क्या वह अपने रोते हुए नवजात बच्चे के मुंह में सोने का चम्मच डालकर उसे चुप करा सकते है? या सोने की शैया पर सुलाकर उसे संतुष्ट कर सकते है। बच्चा जब दुनिया में जन्म लेता है, उसकी सबसे पहली जरूरत होती है भूख। वह पैदा होते ही बिलखता है, रोता है, माँ उसे छाती से लगा लेती है। वह चुप हो जाता है। पेट की जरूरत एक गरीब की भी उतनी ही होती है, जितनी अमीर की। फिर वह क्यों गरीब की रोटी उसका हक छीनकर अपने लिये सोने की शैया तैयार करने लगा रहता है। वह भूल जाता है कि भूखी आत्माओं की बददुआओं से वह अपने लिये खुद की कब्र तैयार कर रहा है।
प्रो. रमाकांत त्रिवेदी और उनकी पत्नी की शव यात्रा शासकीय सम्मान के साथ पूरे शहर से निकाली गई। शिक्षा विभाग के ऑफिस के पास से जब उनकी शव यात्रा गुजरी तो मि. महाजन के मुंह से अचानक निकल पड़ा बेचारा मर गया। पर अपने सिद्धान्तों और आदर्शों को नहीं छोड़ पाया। तभी एक ओर अधिकारी मि. मोहन बोले, मानवता के नाते हम लोगों को भी उनकी शवयात्रा में जाना तो चाहिये। मि. महाजन बोले- ‘ ये मानवता का पाठ तुम कब से पढ़ने लगे।’ तुम्हें याद है महाजन प्रो. त्रिवेदी के केस में तो मैंने भी कहा था, वो बहुत ही ईमानदार और आदर्शवादी इंसान है और उनकी पत्नी भी बीमार है, उन्हें पैसो की बहुत सख्त जरूरत है, ऐसे इंसान को परेशान करना ठीक नहीं है, पर तुम्हीं नहीं माने और मुझसे कहने लगे, इतना ही सदाचारी बनने का शौक है, तो सरकारी नौकरी छोड़कर घर में बैठो। हमारे काम में क्यों बाधा डालते हो। इसलिये मुझे चुप होकर रह जाना पड़ा। अरे तो जाओ उसकी शव यात्रा में शामिल हो जाओ, तुम्हारी आत्मा का मैल धुल जाएगा। इतना कह मि. महाजन ने व्यगांत्मक मुस्कान से उसकी ओर देखा। हाँ भई मैं तो जाऊंगा, इतना कह वह अपने एक साथी के साथ स्कूटर उठाकर वहाँ से श्मशान घाट की ओर चल दिये।
श्मशाम घाट पहुँचकर उनके शवों को विधि विधान के साथ अग्नि को समर्पित कर दिया गया। उनके शव धु-धु कर जलने लगे, तभी एक हृदय विदारक घटना घटी। शाम के पांच बजने में अभी दस मिनट का समय था। शिक्षा विभाग के अधिकारी घर जाने की तैयारी में ही थे कि तभी शार्ट सर्किट से बिल्डिंग में आग लग गई। लोग चीखते चिल्लाते हुए दरवाजे की तरफ भागने लगे। लोगों की चीख पुकार आग की लपटों के साथ ही द्रवित होकर रह गई। बड़ा भयानक पल था वह जैसे श्मशान घाट से उनेकी धू-धूं करती लाशों से कोई चिंगारी उठकर शिक्षा विभाग की बिल्डिंग पर गिर पड़ी हो। मि. महाजन सहित पच्चीस लोग काल रूपी अग्नि की बलि चढ़ गये। फायर ब्रिगेड ने समय पर पहुंचकर कुछ लोगों को मौत के मुंह से निकाल लिया।
ये कर्मों के खेल भी बड़े अजीब होते है। ईश्वर जब न्याय का तराजू हाथ में लेकर बैठ जाता है तो अन्याय उसके सामने कहाँ ठहर पाता है। श्मशान घाट से वापस आकर मोहन और उसके साथी ने जब अपने विभाग के लोगों के क्षत विक्षत जले हुए शरीर देखे तो एक बारगी कांप उठे और उन्होंने उसी समय प्रण किया कभी रिश्वत के पैसे को हाथ नहीं लगायेंगे।