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नीली पतंग

नीली पतंग

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शाम का वक़्त था। मुझे आज इत्तेफ़ाक़ से थोड़ी-सी फुर्सत मिल गई थी, तो मैं अपने कुछ चुनिंदा और पसंदीदा कामों में से एक को पूरा करने में मशग़ूल थी। वो काम था…छत पर बैठकर या खड़े होकर आसमान को ताकने का और बादलों से बनने वाली आकृतियों में कुछ जाना-पहचाना तलाशने का!

दूर तलक फैले हुए नीले आसमान में…कहीं-कहीं दिख रहे सफ़ेद बादल…रुई के फोहों की तरह लग रहे थे। इसके अलावा कुछ और भी था आसमान में, जो बरबस ही सबका ध्यान अपनी तरफ खींच रहा था और मेरा भी। और वो थी एक बड़ी और सुन्दर-सी नीली पतंग, जो बहुत देर से आसमान में लहराती, इठलाती और बलखाती हुई उड़ रही थी।

आसमान के बादलों से हटके, कब मेरा ध्यान उस नीली पतंग पर जाके अटक गया पता नहीं चला। जितना मज़ा शायद उसे उड़ाने वाले को आ रहा होगा उसे उड़ाने में, उतना ही मुझे आ रहा था उसकी उड़ान देखते हुए।

वैसे आपको बता दूँ कि सिर्फ मैं ही अकेली नहीं थी जिसकी निगाहें उस पतंग पर टिकी थी। अचानक नज़रें घुमा कर जब मैंने दूसरी छतों पर देखा तो तकरीबन दर्ज़न भर निग़ाहें और थी, जो टकटकी लगा कर उसे देख रही थी। वो और बात है कि उन नज़रों का उस नीली पतंग को निहारने का मकसद कुछ और था, जो मुझे कुछ देर बाद समझ आया था।

दरअसल उन ललचाती निग़ाहों को इंतज़ार था तो… बस उस लहराती हुई नीली पतंग के कटकर नीचे आ गिरने का। हर निग़ाह चाहती थी उसे लपक लेना ताकि उस पर अपना हक़ जताया जा सके।

लेकिन मैं… मैं तो हरगिज़ ऐसा नहीं चाहती थी… मैं तो बस उसे इसी तरह घंटों तक आसमान में उड़ते हुए देखना चाहती थी पर शायद उन एक दर्ज़न निगाहों में से किसी की ऊपर वाले ने सुन ली और तथास्तु कह दिया। जो नहीं होना चाहिए था, वो हो गया और आख़िरकार वो नीली पतंग अपनी डोर से अलग हो गई। डोर से जुदा होते ही पतंग की लय बिगड़ने लगी और वो धीरे-धीरे हवा के रुख़ के साथ बहकती हुई ज़मीन की तरफ आने लगी।

मेरे दिल से आवाज़ आई - "ओह नहीं! ये क्या हुआ? ये नहीं होना चाहिए था!"
हर तरफ शोर ही शोर था… लपक! लपक! लपक!

देखना मुझे ही मिलेगी… चल हट मेरे हाथ आएगी... हाँ हाँ, बड़ा आया, मेरे होते हाथ तो लगाके दिखा!

ऐसी ना जाने कितनी ही आवाज़ें थी जो आस पड़ोस की छतों से अब नीचे सड़क पर आ पहुँची थीं।

ना जाने क्यों, मुझे यह सब अच्छा नहीं लग रहा था। मैंने आँखें बंद की और मन ही मन कहा- “देखिए भगवान जी! माना कि आप सबकी मुराद पूरी करते हैं पर सही ग़लत का भी कोई पैरामीटर होता है या नहीं… आप किसी से उसकी खुशी तो नहीं छीन सकते, उसे उसके अपने से अलग नहीं कर सकते, उसे किसी और के हाथों की कठपुतली बनने नहीं दे सकते! आपको कोई हक़ नहीं है किसी से उसकी आज़ादी छीन लेने का…उसके अरमानों का गला घोंट देने का! कोई हक़ नहीं!”

एक छोटे बच्चे की तरह, मैं लड़ रही थी भगवान से… उस नीली पतंग के लिए।

आख़िरकार मैंने कहा – “आपने इस नीली पतंग को इसकी डोर से अलग करके, इसे उड़ाने वाले उन हाथों से जुदा तो कर दिया जिन्होंने इसे आसमान की उँचाई तक पहुँचाया… पर अब इसे किसी और के हाथों में मत आने देना।”

मैंने इतना कहकर आँखें खोली… तो नज़ारा बदला हुआ था। शोर अब बुदबुदाहट में तब्दील हो चुका था... उस नीली पतंग को अपने हाथों में कब्जाने का सपना संजोने वाली सारी निगाहें अब एक जगह इकट्ठी थी।

एक पल के लिए मैं बेचैन हो उठी और उन हाथों में उस नीली पतंग को तलाशने लगी पर वो मुझे उस भीड़ में किसी हाथ में नज़र नहीं आई।

क्या इनके अलावा भी उसे कोई और देख रहा था? अगर इनमें से किसी के पास नहीं है तो कहाँ गई वो नीली पतंग... कौन ले गया आख़िर उसे? एक साँस में कई सवाल खुद से ही कर डाले मैंने।

मैंने जैसे ही नज़र घुमाई मुझे मेरे सारे सवालों का जवाब मिल गया और चेहरे की खोई मुस्कान फिर लौट आई।

वो नीली पतंग बिजली के खंभे के सबसे ऊपरी हिस्से में तारों के बीच अटक गई थी जहाँ से उसे उतारने की कोशिश करना अपनी मौत को दावत देना था… तो हाथ लगाना तो दूर रहा अब कोई उसे छूने की भी नहीं सोच सकता था।

इस बार… भगवान जी ने मेरी सुन ली थी!

एक बार फिर वो नीली पतंग इठला रही थी और मुस्कुरा कर कह रही थी, “मैं अपनी डोर से अलग हुई तो क्या हुआ... अभी भी मुझ पर सिर्फ़ उन हाथों का हक़ है जिन्होंने मुझे प्यार से डोर बाँधकर इस खुले आकाश की सैर कराई और मेरे खुले गगन की थाह नापने की ख़्वाहिश को पूरा करने की कोशिश की।”

अगले कुछ ही पलों में सारी भीड़ तितर-बितर हो गई और मैं छत पर खड़ी निहारने लगी एक बार फिर उस सुंदर-सी नीली पतंग को।

अब शायद, उस पतंग को और मुझे भी, इंतज़ार था उन हाथों का... जिनका उस पतंग पर सही मायने में अधिकार था। कब वो निगाहें उसे ढूँढ निकालेगीं और एक बार फिर वो उन हाथों में आएगी।

और कब एक बार फिर… आसमान में लहराएगी वो… नीली पतंग!


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