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मालकिन तो तुम ही हो

मालकिन तो तुम ही हो

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पास के कमरे से आ रही खिलखिलाने की आवाज रमा का दिल छलनी कर रही थी, उसने झुंझला कर हाथों से अपने कान ढक लिए और ज़ोर-ज़ोर से काकी-काकी कह कर चिल्लाने लगी।

"जी मैडम कहिये, काकी मेहमानों के लिए खाना गर्म कर रही हैं," लालू ने कहा।

ये दरवाजा बंद करके जाओ, कितनी बार कहा है कि घर पर कोई मेहमान आए तो मेरा दरवाजा बंद कर दिया करो, कितनी मुश्किल से आँख लगी थी।" रमा ने सारा गुस्सा लालू पर निकाला।

मैडम दरवाजा बंद किया था लेकिन शायद साहब...मैं अभी बन्द कर देता हूँ," लालू चला गया।

रमा लेट गई पर अब नींद कोसों दूर जा चुकी थी, बेचारे लालू को बेवजह डांट दिया, शरद आज फिर अपनी सेक्रेटरी को घर ले आया था, 2 साल पहले रमा एक रोड एक्सीडेंट में अपना पैर गंवा चुकी थी। कुछ दिन तो शरद ने बहुत प्रेम और वफ़ा निभाई लेकिन जाने कब फ़िसल गया औऱ अब इतना गिर चुका है कि पत्नी के सामने भी कोई शर्मिंदगी नहीं होती उसको।बच्चों को ये सब न देखना पड़े इसलिए उन्हें कब का हॉस्टल भेज दिया था।

अब रमा और उसका अकेलापन, पति तो बस कहने के लिए एक घर में था, कमरे तो कब से अलग हो गए थे, पहले कभी-कभी रमा लड़ पड़ती, लेकिन एक दिन शरद ने सारी हदें पार करते हुए कह दिया कि, "मेरी शराफ़त तो यही है कि मैं तुम्हें छोड़ नहीं रहा, अपाहिज तुम हुई हो, मैं नहीं, मेरी ज़रूरतें जो अब तुम पूरा नहीं कर पातीं तो उन्हें पूरा करना मेरा हक़ है, सारे आराम, सारी सुविधाएं, नौकर-चाकर, पैसा-नाम सब दे रखा है, आज भी मिसेज आहूजा हो, इस पर घर की मालकिन, लेकिन मैंने तुमसे क्या मांगा.... ज़रा सी आजादी, किसी के साथ दो पल ही तो गुजरता हूँ, ये भी नहीं दे सकतीं तो चली जाओ।"

कहाँ जाती रमा ,,माँ- बाबा तो कब के चले गए, भाई-भाभी तो कभी पूछने भी नहीं आते औऱ कहाँ जाती, बस यहीं जीते जी नरक भोग रही थी। कोई आँसू पोछने वाला भी नहीं था, तभी दरवाजे पर आहट सुनाई दी।

"काकी! आ जाओ अंदर," रमा ने कहा।

अरे ! कैसे जाना बिटिया की मैं हूँ।" काकी ने हँसते हुए माहौल ठीक करने की कोशिश की।

आपके के सिवाय कोई नहीं आता इस कमरे में, पर जाने वो आवाजें कैसे आ जाती हैं, क्यूँ आ जाती हैं।" रमा सिसक उठी।

ना बेटी, कलेजा मजबूत कर, सब भूल जा, वो तो दो पल की रंगीनी है, एक धोखा, मालकिन तो तू ही है उसकी, सब कुछ तेरा ,और जो तेरा है एक दिन ज़रूर लौट कर आएगा तेरे पास हौसला रख।

काकी रमा का सर सहला कर उसको बहलाने की कोशिश में लगी थीं।

काकी के आश्वासन पर रमा एक फ़ीकी मुस्कान के साथ सोने की कोशिश करती रही लेकिन नींद कहाँ से आती, पूरा दिन पड़े पड़े शरीर नहीं थकता पर आत्मा इस तिरस्कार औऱ बेवफाई का बोझा ढो ढो कर घायल हो चुकी थी। रमा करवटें बदलती रहती काकी वहीं रमा के कमरे में ही चटाई लगा कर सोती थी, शायद काकी को ज़मीन पर सोने में तकलीफ होती थी लेकिन उनका रमा के प्रति लगाव था या कहे तो सहानुभूति ज्यादा बेहतर होगा, तो वो उसे अकेले नहीं छोड़ती थी, सो रमा ने काकी को अपने बगल में सोने की जगह दे दी थी, वही जगह जो कभी शरद की थी। काकी सो चुकी थी।

रमा ने देखा काकी के चेहरे पर अजीब सा सुकून था। सब कुछ तो था काकी के पास, थोड़ी सी कमी थी तो बस पैसों की ,,,,बाकी काकी का भरा पूरा परिवार दो बेटियां, तीन बेटे, दो बहुएँ, लालू अभी छोटा था, देर से हुआ था ना औऱ काका तो देव पुरूष जैसे थे, फूलों का ठेला लगाते लेकिन पहला गजरा काकी के जुड़े में सजाते औऱ शाम तक की कमाई काकी की मुट्ठी में भर उसे स्वर्ग का सा सुख देते,

और कहाँ करोड़ों के बंगले में रहने वाली रमा जिसे केवल पत्नी का दर्जा दिया गया, उसके पास कुछ नहीं था सिवाय अपाहिज शरीर औऱ बेवफ़ा पति के।

धिक्कार है ऐसी ज़िंदगी पर, इससे तो मौत भली पर ,रमा कायर नहीं थी, आज रमा ने सोच लिया था कि वो तलाक ले कर उसे आज़ाद कर देगी शरीर को ज़िंदा रखना है तो आत्म सम्मान को बचाना ही होगा, आखिर कब तक जिंदा लाश बनी हुई पड़ी रहती।

अगली सुबह फैमली वकील को तलाकनामा तैयार करवाने बुलाया तो पता चला कि सारा बिजनेस और बंगला सब रमा के नाम पर था और रमा के ससुर ने सब प्रॉपर्टी बहू के नाम कि थी क्योंकि वो अपनी बहू पर बहुत यकीन करते थे और स्त्री का सम्मान किया करते थे स्त्री को बराबरी का हकदार मानते थे, तभी तो लक्ष्मी उन पर मेहरबान थी,,,

लेकिन रमा को शरद ने कभी इस बात की भनक भी लगने ना दी और तो और शरद का सारा कारोबार भी रमा के नाम पर था क्योंकि महिलाओं को टैक्स में रियायत मिलती है और रमा की जायदाद पे लोन भी अच्छा सा मिलता, तो शायद इसी वजह से शरद, रमा को छोड़ नहीं रहा था वो उसका बड़प्पन नहीं लालच था। अब रमा को सब समझ आ चुका था कि उसे क्या करना था।

शाम को पति ने आते ही रमा ने तलाक़ के कागज थमाते हुए कहा देखो, तुमने मुझे बहुत कुछ दिया मालकिन बनाया लेकिन मैं तुम्हें कुछ नहीं दे सकती, सिवाय आज़ादी के अब तुम जिससे साथ वक़्त ही नहीं, पूरा जीवन बिता सकते हो।

हां, अपने रहने का ठिकाना ढूंढ लेना, सब मेरे नाम पर है तो जाना तो तुम्हें ही है, वकील ने बताया कि हमें तलाक़ जल्दी मिल जाएगा, रमा व्हीलचेयर सरकाती हुई चल पड़ी। आज उसमें आत्मविश्वास की झलक दिख रही थी, शरद मनाने दौड़ा पर रमा फैसला कर चुकी थी।

खैर थोड़े दिनों में तलाक मिलेगा यही सोच रमा अब राहत महसूस कर रही थी और शरद आज़ादी। रमा ने धीरे धीरे कारोबार हाथ में लेना शुरू कर दिया। कहते हैं ना कि जहाँ चाह है वहाँ राह है, ऑफिस में सभी ने बहुत सहयोग किया, सब रमा को पहले से ही पसंद करते थे और शरद के रवैये से परेशान भी थे। रमा ने अपना कारोबार शरद से अलग कर लिया तो शरद के लिए लोन चुकाना भी मुश्किल हो गया, उस पर उसकी लापरवाही से नुकसान होता रहा।

इधर रमा की पैठ बढ़ती गई और मैनेजर जो बड़ी उम्र के थे, उन्होंने काफ़ी मदद की, रमा ने काफ़ी शेयर और खरीद लिए, शरद को अब खुलेआम अय्याशी का मौका मिल गया, बस उसका कारोबार डूबता गया, बैंक बैलेंस रितता गया।

आखिर 6 माह बाद तलाक मंजूर हुआ, रमा मेहनत करती जा रही थी, औऱ शरद पैसों की तंगी से जूझ रहा था, जितनी तितलियां पाली वो सब छोड़ कर जा चुकी थी, अब उसकी आँखें खुली, लेकिन अब बहुत देर हो चुकी थी,शराब की लत औऱ दिवालियापन उसे अंधेरे में ले जा रहा था।

रमा ने सुबह अखबार में खबर पढ़ी "कल देर रात कारोबारी शरद आहूजा की कार दुर्घटनाग्र्स्त हो गई और उन्होंने अपने पैर खो दिये" रमा के दिल में हुक सी लगी,उसने आँखे बंद कर ली लेकिन आँसू गालों पर फ़िसल ही गये।

तभी दरवाजे पर आहट हुई "आ जाओ काकी।"

"बिटिया चाय,ये क्या तुम रो रही हो, अब क्यों रोती पगली सब कुछ तो तेरा, तेरे पास ही है अब, उसे उसके किये का फल मिला है, तू क्यूँ जी जलाती है, कल रात फ़ोन आया था अस्पताल से पर तुम सो रही थी "काकी ने अखबार समेटते हुए कहा।

काकी मेरी गाड़ी निकलवाओ और हमारा कमरा तैयार कर देना, मैं शरद को लेकर आती हूँ।" रमा ने दृढ़ता से कहा।

रमा इज्जत, पैसा, रूतबा सब कमा रही थी आज वो सही मायने में मालकिन थी ,जो उसका था उसे मिला ,सिवाय पति के क्योंकि वो उसका कभी था ही नहीं, लेकिन अब वो एक बार फिर उसे अपनी ज़िंदगी में लाने जा रही थी।


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