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Sanatan Mishra

Drama

5.0  

Sanatan Mishra

Drama

पिता जी की मुस्कराहट

पिता जी की मुस्कराहट

6 mins
512


पिताजी के अनुसार तो हम “निकम्मे, निठल्ले, नामाकूल, आवारा, बदमाश” और न जाने क्या- क्या थे, पर मम्मी ने हमारी हमको गाय के बछड़े की तरह पाला था। कहने को तो हम बेरोजगार थे, पर कसम से एक हुनर हमसे कोई छीन नहीं सकता था - खम्बे से पतंग निकालने का। पूरे मोहल्ले में निकल जाइये और पूछ आइये कि बाबू भाई को जानते हो? वो आदमी आपका हाथ पकड़के हमारे पास ले आएगा। पूछो क्यों?? क्योंकि हम उसकी पतंग बड़े से बड़े खतरनाक से खतरनाक जगह से निकाले होंगे। पिताजी हमारे, जैसे भी थे, पर थे तो हमारे और जब बाप आपका पुराने पोस्ट ऑफिस का पोस्टमैन हो तो हमेशा चाहेगा कि उसका लड़का भी उसी की तरह ‘सरकारी नौकरी’ में लग जाए। पर उनको कौन समझाए कि हम खाकी टोपी पहन के लल्लू नहीं लगना चाहते थे। कुछ ‘बिजिनेस’ करना चाहते थे।

अब जब ये बात हम पिताजी को बताए तो पहले तो हमको वो मसाले जैसा कूटे, फिर मम्मी की ओर मुँह करके बोले “अगर इ लड़का सरकारी नौकरी नहीं करेगा तो इससे कह दो निकल जाए यहाँ से। और जाए अपने गधे दोस्तों की, दोपहर भर पतंग निकाले छज्जे से“

हमारा तो मन था कि सोमवार का दिन था-भोलेनाथ का दिन निकल ही जाएँ, पर याद आया कि आज सलमान भाई की जी सिनेमा पे ‘तेरे नाम’ आएगी। तो हम बेइज्जती का घूँट पीकर रह गए। हमको पता है, अगर घी सीधी ऊँगली से न निकले तो डिब्बा तोड़ दो। फिर क्या था, हमारा बाबू स्पेशल शुरू हो गया।

दो दिन घर का खाना छोड़ दिए तो माता हमारी, हमारी टीम में आ गईं। वो बात दूसरी है कि हम बाहर से छोला पूरी सुबह शाम ग्रहण कर लेते थे। घर में तीन लोग, दो आपकी टीम में, अब तीसरे को तो पिघलना ही था।

“क्या करेगा ?” अखबार को नीचे रखकर चश्मे को अपनी हाफ बाँह वाली सफ़ेद बनियान के एक छोर से साफ़ करते हुए पिताजी ने बात करने के उद्देश्य से हमसे पूछा।

“पिताजी हम ड्राईवरी करेंगे”

“साइकिल चलाना आता है? ड्राईवरी करेंगे!!!” आवाज़ में तल्खी लाते हुए बोले, पर माँ को देखके स्वर नीचे कर लिया।

“पिताजी हमारी बब्बन से बात हो गई है, वो कंडक्टरी करेगा हम ड्राइवरी। बस, आप पैसा दे दीजिये। हम अपना खुद का ट्रांसपोर्ट शुरू कर दें”

“बब्बन कौन है?”

“अरे बब्बन प्रजापति !!जिसके बाबूजी आपकी शादी में रसगुल्ले की कढ़ाई में गिर गये थे”

“अब तुम दारुबाज़ नशेड़ी के बेटे के साथ बिजनेस करोगे?” माताजी हमारी, बीच में कराहते हुए बोली-“ ऐसा है, लड़का कुछ अलग करना चाहता है तो काहे टाँग लगाते हैं। पैसा नही देना है तो, मत दीजिये। हम अपना गहना बेच देंगे, गहना तो कुछ बनवाया नहीं है। जो हैं, वो तो ससुराल से लिए हैं। गहना से काम नहीं चलेगा तो अपना खून के लिए, अपना खून बेच देंगे” एक आँख के आँसू पोंछते हुए बोलीं।

उस दिन पता चला कि औरतें समय आने पर अपने आँसुओ का इस्तेमाल बखूबी कर सकती हैं।

उस दिन पिताजी हारे और माताजी हमारी भारी मतों से जीत गईं।पिताजी के साथ जाकर बैंक से बकायदा कैश निकाला और बब्बन के साथ जाकर, उसी दिन हम बगल के तहसील से हाथों-हाथ कैश देकर पीले रंग की अपनी टेम्पो उठा लाए।

गेंदे के फूल वाला पीला रंग और बीच में जूता पॉलिश वाला काले रंग की पट्टी, एकदम नई दुल्हन बना दिए रहा, बब्बन जब फूल माला सजा के लाया था। पहले बार जब मोहल्ले के बीच में लाकर, घर के सामने खड़ा किया था तो मोहल्ले के बच्चे अपना मंझा ढीला कर, हमारी दुल्हन को देखने के लिए अपनी पतंग कटा बैठे थे। फ़ीता हम अपनी माताजी से कटवाए थे। उस दिन हमारी माताजी के आँखों में आँसू था, पर हमको पता था ये वाला असली था!!

पिताजी थोड़े असहमत थे, पर चेहरे पे चमक थी उनके भी। दोनों को बिठाकर आधा शहर घुमाए थे। अगला हफ़्ता तो समझिये दोस्तों, मोहल्ले वालों को मुफ़्त में टेम्पो में घुमाते-घुमाते निकल गया। जान से भी ज्यादा प्यार करने लगे थे। बकायदा चाईनीज़ स्पीकर लगे थे। कुमार शानू से अल्ताफ राजा तक की कैसेट लगवाए थे, जब तक टेम्पो की सांस चलती तब तक गाना चलता स्टेशन से घंटाघर चौराहे तक टेम्पो शुरू कर दिए थे। बिजनेस इतना बढ़िया तो नहीं चल रहा था पर हाँ, हम खुश थे। क्योंकि हम वो कर रहे थे, जो हम करना चाहते थे। दो महीना बीत गया था, बब्बन अब काम छोड़ने की बात कर रहा था। का है कि वो अपने चाचा के साथ बम्बई जा रहा था, कालीन का काम सीखने। हम भी उसको जाने दिए, उसके बिना भी हम काम चला सकते थे। अब पूरा बिजिनेस हमारे ऊपर था। सुबह से निकलो तो रात में ग्यारह बजे वापसी होती थी।

हफ़्ते निकलने लगे। एक बार टेम्पो को सर्विस में दिए थे इसलिए उस दिन हम नहीं निकले। पूरा दिन हम आराम करने की सोचे। सुबह आठ बजे उठे, तो देखे, पिताजी अभी भी अखबार ही पढ़ रहे हैं। अक्सर ये रविवार को ही होता था। तो हम दातून करते-करते पूछ ही लिए, “क्यों पिताजी आज चिट्ठी नहीं बाँटेंगे?”

पिताजी मुस्कुराते हुए फिर अखबार में घुस गए। शायद अच्छे मूड में होंगे नहीं तो कभी-कभी ऐसे मज़ाक पर एकाएक विस्फोट करते थे। कुल्ला करके, हम चाय की आस में किचन में गये। माता हमारी छन्नी से चाय छान रहीं थीं। हम उनसे भी पूछ बैठे।

“मम्मी!! पिताजी आज छुट्टी पर हैं क्या?”

थोड़ा चुप्पी के बाद, स्टील के ग्लास को हमारी तरफ करके बोलीं "अब तुम्हारे बाबूजी पोस्ट ऑफिस में काम नहीं करते, वो काम छोड़ दिए ” हमारी आँख से आँख नहीं मिलाते हुए बोलीं, क्योंकि वो जानती थीं कि हम “क्यों” पूछेंगे !!

थोड़ी चुप्पी के बाद वो बोलीं "तुमको पैसा देने के लिए, वो अपनी नौकरी एक आदमी को बेंच दिए!!!” गरम चाय का ग्लास हमको नहीं जला रहा था। हमको जला रहा था, हमारे पिताजी और मम्मी का हमारे लिए इतना प्यार।

पिताजी, जिनके लिए हम निकम्मे और बेकार थे, उन्होंने हम पर इतना विश्वास दिखाया था। पर कभी जताया नहीं था।

हम उनकी अखबार के पीछे पढ़ने वाली मुस्कान को पढ़ने में थोड़ी भूल कर दिए थे। शायद उस दिन हमने ये जाना था कि हमारे माता पिता का प्यार दिखाने का तरीका अलग होता है, पर जैसा भी होता है, अदभुद होता है। उस दिन के बाद से हमारा उनको देखने का नज़रिया ही बदल गया।

रोज़ सुबह अब जब, अखबार के पीछे से वो मुस्कुराके हमसे बोलते हैं “डीजल के पैसे हैं न, की दूँ?” तो हम भी उनको मुस्कुराके देखते हैं और बिना कुछ बोले चला जाते हैं और मन में कहते हैं “आपने जो दिया है पहले उसका क़र्ज़ तो मिटा दें”

आज भी, माता हमारी छोटी-छोटी बात मनवाने के लिए अपने ब्रह्मास्त्र का सहारा लेती हैं और हम दूर से दोनों को देखकर खुश होता हैं हाँ!!! कभी कभी बीच में बोलने पर पिताजी से डाँट सुन लेता हैं, पर अब पता नहीं क्यों “अच्छा लगता है!!!”


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