सुई-धागा
सुई-धागा
"विशाल घर नहीं जाओगे ?" सीनियर सुप्रीडेंट विनायक जी की आवाज़ उभरी।
मेरे कुछ कहने से पहले बोले, अरे मियां ! अभी तो शादी की दूसरी सालगिरह भी नहीं मनायी तुमने। अभी से यह हाल है !"
विनायक जी शायद मेरा चेहरा देखकर मन पढ़ रहे थे।
रोज़ की चिक-चिक, झिक-झिक घर में रहना असह्य कर देता था। दम घुटता है मेरा अब इस घर में, ऑफिस से घर जाने का भी मन नहीं करता। बिना मतलब विशाखा का लड़ना, झगड़ना, ताने मारना अब बर्दाश्त से बाहर हो रहा था।
"क्यों बरखुरदार ! क्या बात हो गई ? अगर चाहो तो मन की बात बता सकते हो। आखिर हमें पच्चीस सालों का अनुभव हो चला है।"
क्या बताता उनको कि विशाखा हर छोटी-बड़ी बात में दखल देने लग जाती है। 'घर में पैसे दिए, मुझे क्यों नहीं बताया ?' 'छुट्टी वाले दिन दोस्तों के साथ घूमते क्यों रहे ?' और भी न जाने कितने सवाल !
मेरे चेहरे के आते-जाते रंगों को टटोलते हुए विनायक जी ने अचानक जैसे चिंगारी सुलगा दी।
"बीवी सूई जैसी चुभ रही है लगता है !"
अब सब्र का बाँध टूट चुका था। "विनायक जी सारी पत्नियाँ ऐसी ही होती है क्या ? सूई जैसी नुकीली चुभती, नकोटती-खसोटती।" चिंगारी सुलगकर आग भड़क चुकी थी।
अरे भाई ! सही कहा तुमने। पत्नियाँ सूई जैसी ही होती है।" मेरे अहंकार भरे मन में पानी की शीतल बौछारों जैसे पड़े ये शब्द।
"पर इसी सुई में अगर पति के प्यार, विश्वास, समर्पण का धागा पड़ा हो तो सुई घर जोड़ने का काम करती है। अकेली सुई चुभती है और खाली पड़ा धागा उलझता जाता है।"
एक अविरल धारा जैसे थे विनायक जी के ये शब्द जो अहंकार की ज्वाला शांत कर राख भी बहा ले गया।