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स्वप्न ही शेष है !

स्वप्न ही शेष है !

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भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ कलाम जी का कहना है, "स्वप्न वह नहीं जो हम सोते हुए देखते हैं, अपितु स्वप्न वह हैं जो हमें सोने नहीं देते" । सुनते ही आश्चर्य की सीमा न थी क्योंकि स्वप्न की ऐसी व्याख्या मैंने कभी सुनी नही थी । तभी स्वयं को मैंने कुछ अलग स्थिति में पाया, अपने स्वप्न हेतु नहीं अपितु उस स्वप्न हेतु जो भारतीय वीरों ने देखा था जिसमें हर भारतीय संपन्न था, सामजिक परिवेश बहुत अच्छा था, सब ओर शांति थी, साम्प्रदायिक सद्भावना थी । हर व्यक्ति दुसरे के सुख में सुखी और दुःख में दुखी था, समाज के रक्षक अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे थे, वैज्ञानिक उन्नति के साथ वैचारिक उन्नति भी हो रही थी । स्वदेशी ही क्या विदेशी भी भारत के भूत व वर्तमान का महिमामंडन करते थकते न थे । इस स्वप्न में जो कुछ भी देखा गया वह शायद वर्तमान समाज के बिलकुल विपरीत था और इस प्रकार यह स्वप्न मात्र दिवास्वप्न बनकर रह गया ।

आज के भारत की स्थिति कुछ और ही है तथा इसका भविष्य भी दृष्टिगोचर हो रहा है । समाज विघटन की और बढ़ रहा है, हमारी सोच पर पर्दा पड़ गया है, वैचारिक शक्ति क्षीण होने लगी है, साम्प्रदायिक सद्भावना द्वेष में परिवर्तित हो गयी है, सामाजिक मायने कहीं खो गए हैं, मानस पटल पर पैसों ने विचारों की जगह ले ली है, वसुधैव कुटुम्बकम अपना अर्थ खोने लगा है, जगत में त्राहि-त्राहि मची हुई है, आँख के बदले आँख का विचार बल पकड़ रहा है, समाज के रक्षक; भक्षक का रूप लेने लगे हैं, मानव ने अपनी सभी सीमाएं लांघ दी हैं, मानव शरीर में तमोगुण की प्रधानता हो गयी है, समाज तीव्र गति से गर्त की और अग्रसर है और वह दिन दूर नहीं जब सम्पूर्ण मानव सभ्यता रसातल में पहुंच जायेगी ।

क्या वास्तव में यह स्वप्न मात्र दिवास्वप्न बनकर रह जाने के लिए था? क्या हमारे वीरों और वीरांगनाओं ने ऐसे ही भारत की कल्पना की थी ? क्या हम आगे बढ़ने की होड़ में इतने पीछे रह गए हैं की अब न तो हमें आगे बढ़ने की समझ है और न ही हमारे पास पीछे मुड़ने का विकल्प ही शेष है? क्या यही मानवता है? क्या यही सद्चरित्र है? क्या हम यूँ ही मौन रहेंगे? क्या सभ्यता के ऊपर होते इस प्रहार का हमारे पास कोई जवाब नहीं? क्या हम अपना खून अपने ही हाथों नहीं कर रहे? क्या हमारा अस्तित्व हमारे ऊपर ही बोझ बनकर रह गया है? क्या हम इतना भी नहीं सोच पा रहे हैं की हम अपने ही पतन का कारण बनते जा रहे हैं? क्या हम पूरी सभ्यता को काल का ग्रास बनाना चाहते हैं? इन प्रश्नों की चीत्कार जब कानों में पड़ती है, मन सिहर उठता है, सब कुछ नियति के विपरीत होता दिखाई पड़ता है, मानव सभ्यता गर्त की ओर  बढ़ती दिखाई देती है और हमारे अस्तित्व के नाश का दृश्य आँखों के समक्ष तांडव करता प्रतीत होता है ।

सोचने का विषय यह है की युवा शक्ति के रहते यह कैसे संभव हो पाया? युवाओं के अंदर की वह आग कहाँ बुझ गई? क्या भोग और विलास के बीच, हमें उस समाज का कोई ख्याल नहीं जिसका हम खुद एक हिस्सा हैं?

यह समय है ज्ञान चक्षुओं को खोलने का, यह समय है सामजिक स्थिति को सुधारने का, यह समय है असामाजिक तत्वों को इस समाज से ही नहीं अपितु इस धरती से निकाल फेंकने का, यह समय है ऐसी रक्षक ढाल बनने का जिसे तमोगुण प्रधान विचार व सोच तोड़ नहीं सकते, यह समय है मन में यह प्रण करने का कि हम तब तक नहीं रुकेंगे जब तक इस पावन भूमि से ऐसी सोच को न मिटा दें जो आगे चलकर सामाजिक विघटन का कारण बन सकती है, यह समय है स्वयं को लोभ और मोह से इतना ऊपर उठाने का व इतना पवित्र बनाने का कि हमारे विचारों के आगे जो भी आए; हमारे तेज मात्र से समूल नष्ट हो जाए, स्वयं को मानसिक रूप से इतना बलिष्ठ बनाने का कि समाज में जो बहरूपिये बैठे हैं जो छिप कर गलत मनोवृत्तियों को बल देते हैं, वह हतोत्साहित हों और हमारी सोच मात्र से उनका पतन हो ।

और विचारों के मध्य मन के भवसागर में एक लहर उठी और यह प्रश्न दे गई कि यह सब कैसे संभव हो सकता है? क्या युक्ति लगाईं जाये की यह विचार सच हो जाए । मेरे पास एक ही उत्तर था, स्वयं में बदलाव, अपनी दिनचर्या में बदलाव । हम समाज को तभी बदल पाएंगे जब हम स्वयं में बदलाव लाएंगे । तो आइये आज ही यह प्रण लें कि  अपने अंदर समाई तमोगुण शक्तियों को अपने शरीर व मन-मस्तिष्क से दूर करेंगे और उस स्वप्न को "शेष" नहीं रहने देंगे, अपितु उसे सच कर दिखाएँगे ।


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